Wednesday, June 22, 2016

सम्वाद

दृश्य एक:

देवताल में यह ऋषि मार्तण्ड का आश्रम है।
यज्ञ धूम्र से वातावरण दिव्य सुगंधी से आप्लावित है। गौशाला में गाय भोर के स्वागत में आत्मातिरेक संतुष्ट हो एक लय में अपने कान हिला रही है। ऋषि पुत्र खरपतवारों के पुष्पों पर मोहित हो कौतुहलवश कुछ फूल तोड़कर अपनी माता को दिखातें है तथा उनके रंग एवं कुल की समस्त जानकारी चाहतें है। उनकी माता उनके इस अवांछित कर्म से पहले थोड़ी कुपित होने का अभिनय करती है फिर वो अपने पुत्रों की सरलता पर मुग्ध उनको वनस्पति तथा मनुष्य के सम्बन्ध पर एक सरस कोमल पाठ पढ़ाती है।

दृश्य दो:
आश्रय के निकट एक छोटी नदी कल-कल की ध्वनि में बह रही है। उसके अंदर जो छोटी शिलाएं है वो अपनी दिशा को लेकर आश्वस्त नही है वो शीघ्रता से किनारे का आश्रय चाहती है बड़ी शिलाएं उनके भाग्य की अनिश्चितता पर लेशमात्र भी चिंतित नही है। नदी का जल वेग के अधीन है मगर फिर भी छोटी शिलाओं को न्यूनतम चोट पहुँचाना चाहता है इसलिए वो छोटी कंकरों से कहता है कि उसको अधिकतम हिस्सों में विभाजित कर दें। बड़ी शिलाएं अपने हिस्से का एकांत ढो कर बूढ़ी हो चुकी है मगर उनके अभिमान में किंचित भी कमी नही है उनकी उदारता संदिग्ध है बावजूद इसके वो नीचे से टूटनी शुरू हो गई है।

दृश्य तीन:

मार्तण्ड ऋषि के प्रिय शिष्य वसन्त सुकुमार और ऋषि पुत्री प्रज्ञा में प्रेम को लेकर एक सार्वजनिक विमर्श चल रहा है। शास्त्र में रूचि रखने वाले अन्य शिष्य इसे व्यर्थ का विषय मानतें है इसलिए वो लगभग अरुचि से दोनों के तर्क सुन रहें है।

वसन्त सुकुमार कहता है ' प्रेम का उत्स मन है मगर इसकी यात्रा देह से गुजरती है। देह से विवर्ण होकर न प्रेम सम्भव है और न आराधना। प्रेम का विपर्य प्रायः घृणा समझा जाता है मगर यह पूर्णत: सच नही है प्रेम का कोई विपक्ष नही है यह एकल मार्ग है जो विपक्ष दिखतें है वो मात्र रास्ते के कुछ पड़ाव है जिन्हें कुछ प्रेमी लक्ष्य के रूप में रूपांतरित कर देते है।
प्रेम अनुराग की देहरी पर बैठा सांख्य सिद्ध पुरुष है जो आदि से समन्वय अभिलाषी है इसका विस्तार मुक्ति की सापेक्षिक चाह भर नही है बल्कि ये विस्तार के साथ अनन्त के शून्य में विलीन होने की यात्रा है।'

प्रज्ञा प्रतिवाद करती है और कहती है ' मन की यात्रा मन से आरम्भ होकर मन पर ही समाप्त होती है। मन को देह की इकाई नही है मगर ये देह को भौतिक अवस्था में स्तम्भित रखनें में समर्थ है। प्रेम दरअसल मनुष्य की नैसर्गिक आवश्यकता भर नही है यह प्रकृति का एक हस्तक्षेप है जो मनुष्य की संवेदना को परिमार्जित और परिष्कृत करनें के लिए अस्तित्व का एक सहयोगी उपक्रम है।
मैं प्रेम को प्रतिछाया के रूप में देखती हूँ मगर ये नियंत्रण से मुक्त है प्रारब्ध और नियति के हाथों ये शापित है अनुराग वर्जनीय नही मगर अनुराग को उसकी सही दशा और दिशा में समझनें के लिए प्राणी प्रायः त्रुटि कर बैठता इसलिए प्रेम मार्ग और लक्ष्य दोनों से च्युत होकर विभरम की ध्वनि देना लगता है।

दृश्य चार:
ऋषि पुत्र आसमान की तरफ देखकर वर्षा का अनुमान लगा रहे है उनके पास कुछ अनुमानित कथन है वो उसकी पुष्टि आश्रम के आचार्यो से चाहतें है मगर आचार्य कहते है प्रकृति के बारें में अनुमान विकसित करना शास्त्रोक्त नही है। केवल सिद्ध पुरुष मौन के बाद इस पर कुछ बोलने के अधिकारी है।वे उन्हें प्रतीक्षा के कुछ मौलिक सूत्र देते है जिन्हें सुन ऋषि पुत्र असंतुष्टि की हंसी हंसते है और अपनी अपनी भविष्यवाणी प्रकाशित कर देते है।

सूत्रधार:
प्रकृति,प्रेम,प्रतीक्षा तीनों पर भाष्यों की आयु बेहद सीमित है तीनों अनित्य है मगर उनकी नित्यता भी असंदिग्ध है।
जो ज्ञात है वही अज्ञात है और जो अज्ञात है उसको जानने के लिए मनुष्य व्याकुल है। ये व्याकुलता उसे मुखर बनाती है। जैसे बादलों के सहारे धरती करवट बदलती है जैसे नदियों के किनारे हर साल समन्दर के लिए गुप्तचरी करते है ठीक वैसे ही मनुष्य अपने लिए असंगतताओं का चयन करता है। ये चयन मनुष्य की सबसे बड़ी सुविधा है और यही सबसे बड़ी असुविधा।

(समाप्त)

©डॉ.अजित

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