Sunday, June 19, 2016

खत: नंदिता दास

डियर नंदिता दास,
मन के ऊष्णकटिबंधीय मौसम पर खड़ा सोच रहा हूँ इस खत को शुरू कहाँ से करूँ?
ख्याल इस कदर आपसे में गुथे है कि एक का सिरा पकड़ता हूँ तो दूसरा छूट जाता है।

तुम्हें कुछ कहने के लिए धरती के सबसे उपेक्षित टुकड़े पर मैं समाधिस्थ बैठा हूँ यह लगभग प्रार्थना के क्षणों के जैसा है या फिर मन के सूखे निर्जन रेगिस्तान में एक आवारा बदली के टुकड़ी के इंतजार में आसमान की तरफ देखनें जैसा भी इसे समझा जा सकता है।

तुम्हें कुछ कहने से पहले किसी मांत्रिक की तरह मेरे होंठ कंपकपा जाते है। तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन सीधे मेरी सोई हुई रूह के बालों में  कंघी कर उसके हाथ में एक पतंग थमा जाता है फिर वो बिना के डोर के आसमान में आवारा उड़ती फिरती है।

खूबसूरती की जिस दुनिया में गोरे लोगो का कब्जा था वहां तुम्हारे सांवलेपन ने एक ऐसा समयोचित हस्तक्षेप किया किया तुम्हारे कारण सांवले लोग खुद से प्यार करना सीख गए। तुम्हारा होना उनकी आँखों में आत्मविश्वास का होना है। तुमनें बताया यदि खुद पर भरोसा किया जाए तो दुनिया की हर स्थापित मान्यता को बेहद अकेला किया जा सकता है।

तुम्हारे अस्तित्व का सम्मोहन इतना गहरा है कि मैं निर्बाध इस पर बोलता रह सकता हूँ और उतनी ही सघनता के साथ तुम्हें देख मुद्दत तक मौन रह सकता हूँ। ये एक बड़ी दुलर्भ सी बात है।

तुम हंसती हो तो लगता है दिन में सूरज के आतंक के बीच भी कुछ सितारे बादलों को हटा धरती को देखनें चले आए हो। तुम्हारे अस्तित्व को देखने के लिए उपग्रह की तरह सतत् यात्रा में रहना पड़ता है तभी तुम्हें पूर्णता के कुछ अंशो में देखा जा सकता है। जब चेतना की ऊंचाई से तुम्हें देखता हूँ तो तुम्हारा कद और भूमिका बेहद व्यापाक पाता हूँ मानो धरती के दो ध्रुवों के मध्य तुम्हारे अस्तित्व का एक पुल बना हो एक तरफ हारे हुए लोग हो और दूसरी तरफ जीत से मायूस बैठे लोग।

मैं यदा कदा असंगत कविताएँ लिखनें वाला एक अकवि हूँ मगर तुम्हें देखता हूँ तो सम्वेदना के न जानें कितने अमूर्त प्रतीक और बिम्ब मुझे बताते है कि तुम्हारे व्यक्तित्व की अनगिनत ढंग से टीकाएं की जा सकती है।

तुमनें देह को वर्ण से मुक्त नही किया बल्कि देह को इस वर्ण के साथ अभिमान के साथ रहने का कौशल सिखाया है तुम्हें देख न जानें कितने लोग सन्तोष की रोटी आत्मविश्वास की चटनी के साथ सार्वजनिक तौर पर खा सकते हैं।
एक इंटरव्यू में मैंने तुम्हारा काजल ध्यान से देखा तो पाया कि यह कुछ कुछ वैसा है जैसे ईश्वर ने धरती की सबसे उपेक्षित झीलों की अपनी चूल्हें के कोयलें से मेढ़बंदी कर दी हो ताकि वो आपस में मिलें बिना भी सहजता से रह सकें और उनका जलस्तर बचा रहें।

तुम्हारी आँखें निरुपाय मनुष्य को बताती है कि दुःख उतनी भी व्यक्तिगत चीज़ नही है जितना इसे समझ लिया जाता है तुम्हारी पलकों पर दुनिया के उस हिस्से का पता लिखा है जहां दुनिया के सताए हुए लोग एक दूसरे के ज़ख्मो की मरहम पट्टी करते है और कोई अहसान भी नही जताते।

तुम्हारी ऊँगलिया अपेक्षाकृत लम्बी है मानो ईश्वर ने इन्हें आसमान के बालों में कंघी करने के लिए बनाया हो तुम्हारे नाखूनों की कलात्मक बुनावट मेसोपोटामिया के छोटे पहाड़ी टीलों के जैसी है जहां से छलांग लगा कर सभ्यता के विकास का पूरा पाठ बहते हुए पढ़ा जा सकता है।

परम्परा के लिहाज़ से तुम उस मिट्टी से आती हो जो इंसान को छूकर उसे उसकी समस्त कमजोरियों के बावजूद देवता बना देती है मगर मैं देवता बननें का अभिलाषी नही हूँ देवत्व के ग्लैमर से कई गुना बड़ा परिचय यह है कि मैं नन्दिता दास को थोडा बहुत जानता हूँ थोड़ा बहुत इसलिए कहा क्योंकि तमाम प्रज्ञा तन्त्र के बावजूद तुम्हें पूर्णता में जान पाना मेरे सामर्थ्य से परे की बात है।

जहां तक मेरी जानकारी है तुम ज्यादा लम्बे बाल नही रखती हो यदि लम्बे रखती तो और अच्छा होता इसलिए नही कि मुझे लम्बे बाल पसन्द है बल्कि इसलिए फिर तुम्हारी छाया में अधिक लोग प्राश्रय पा सकतें है।फिलहाल जो तुम्हारे बाल है वो महज तुम्हारे बाल नही है बल्कि असमर्थताओं के पहाड़ की पीठ पर बादलों की आवश्यक छाया है ताकि सृष्टि के अंत के समय जीने लायक कुछ वनस्पतियां संरक्षित बच सके और जिंदगी की क्रूरता को थोड़ी दिन के लिए स्थगित किया जा सके। बहुत मतलबी होकर सोचने लगता हूँ तो तुम्हारे बाल मुझे उच्च हिमालय की तलहटी के कुछ छोटे छोटे अज्ञात जंगल लगनें लगते है जिनकी छाया में सुना है सिद्ध लोग समाधिस्थ है। दुनियावी झंझटो से निबटकर एकदिन उसी जंगल में सुस्ताने की कामना मन में लिए मुद्दत से मैं धरती पर भटक रहा हूँ।

मुझे उम्मीद है एक दिन तुम्हारी हंसी की बारिश में मौसम को चिढ़ाते हुए एक निर्जन पगडंडी पर मैं दिल की सिम्फनी बजाते हुए बहुत दूर निकल जाऊँगा तब ये खत एक वसीयत की तरह मेरे चाहनें वाले लोग पढ़ेंगे।

दुनिया की तमाम उम्मीदों के बावजूद मुझे बात की कतई उम्मीद नही कि एकदिन तुमसे मेरी मुलाकात होगी इंफैक्ट मैं चाहता भी नही तुमसे कभी मुलाकात हो मैं बस यूं ही दूर से तुमसे देखतें हुए दिन को ढलतें हुए देखना चाहता हूँ और इस तरह तुम्हें देखना ठीक वैसा है जैसे समन्दर के सफर में किसी अकेले मुसाफिर को शाम हो जाए।

किसी मोड़ पर यूं ही फिर मुलाकात होगी और हां!अंत में एक बात कहकर विदा लेता हूँ
तुम्हारी मुस्कान तुम्हारी हंसी से ज्यादा खूबसूरत है।

तुम्हारा
एक ईमानदार दर्शक

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