Sunday, July 31, 2016

देह यज्ञ

देह को अनावृत्त करता हूँ तो दिगन्त तक दिगम्बर स्तुतियां लय बद्ध होकर अनहद नाद में रूपांतरित हो जाती है।

स्पर्शों को ब्रह्म महूर्त की धूप देता हूँ उन पर अनासक्ति के केवड़े के जल का अभिषेक करता हूँ। छाया को छाया के समीप ले जाकर तृप्त कामनाओं का दीप जलाता हूँ।
 जिसमें दो आकार स्वतः दैदीप्यमान हो उठतें है।

अस्तित्व से प्रतिरोध शून्यता की दिशा में आगे बढ़ जाता  है समानांतर एक नूतन मार्ग बनता है जिसमें दिशा की कामना नही बल्कि किसी आकाशगंगा की देहरी पर बैठ कर देह को पवित्रता से चमकते हुए देखना दृश्य में शामिल होता है।

काया के मनोविज्ञान पर दर्शन की टीका करने के लिए मन के सम्पूर्ण श्वांस से अंगुलियों में अंगुलिया फंसाकर प्राणशक्ति से शंखनाद करता हूँ फिर उसकी ध्वनि में हृदय के गहरे और एकांतिक स्नानागार में निःसंग स्नान करने उतर जाता हूँ।

देह के मध्यांतर पर कुछ कीलित मंत्रो के यज्ञ मुझे करने है इसके लिए थोड़ी समिधा उधार मांगता हूँ। फिर वक्री आसन लगाकर मूलबन्ध को साधता हुआ नाभि के इर्द गिर्द स्पर्शों की समिधा सजा देता हूँ। वैदिक ऋचाओं अव्यक्त भावों और सम्बन्धों के दिव्य अग्निहोत्र मंत्र सिद्ध करने के लिए संयुक्ति का कपूर देह की यज्ञ वेदी के ठीक मध्य रख कर प्रथम अग्नि प्रज्वलित कर देता हूँ।

ये एक कालचक्र का षड्यंत्र नही है बल्कि अस्तित्व की संपूर्णता का एक स्व:स्फूर्त आयोजन है जिसकी आवृत्ति किसी नियोजन से मिलती है।

तुम्हारे पैरो तले एक निषेद्ध प्रश्नों का एक युद्ध सनातन से चल रहा है जिसकी कराह में तुम्हारे माथे पर कान लगा कर सुनता हूँ न्याय और औचित्य के तर्क एकत्रित करने की अपेक्षा मैं स्वयं दूत बनकर एक संधि प्रस्ताव तुम्हारी एड़ियों की गुफाओं में दाखिल कर आता हूँ जिस की चर्चा तुम्हारी पलकें गुप्तचर की तरह मेरी आँखों से करती है।

मन के अमात्य थोड़े बैचेन है उन्होंने हमारी हथेलियों को तपा कर गर्म कर दिया है अब उनका प्रभाव को आरोग्य में रूपांतरित करने का उचित समय है इसलिए पीठ की निर्जनता पर ठीक मध्य में बहती नदी में उनको भावना देकर शुद्ध किया जा रहा है ये जन्म जन्मान्तरों के जख्मों पर मरहम पट्टी करने जैसा द्विपक्षीय अनुभव कहा जा सकता है।

काया के असंख्य रुष्ट रोमकूपों ने सन्धि के प्रस्ताव पर आह्लादित होकर मौन को तिरोहित कर दिया है अब वो एकदूसरे की कुशलक्षेम पूछने को लेकर उत्साहित एवं आतुर प्रतीत हो रहे है ये सघन और शाश्वस्त अंतरग परिचय का एक शास्त्रीय सत्र जिसका विधान स्वयं प्रकृति के देवता ने दिगपालों की सम्मति से पंचाग में तिथि देखकर निर्धारित किया है।

अवचेतन के स्वप्न को अमूर्त वीथि से निकाल कर मूर्त अनुभूतियों के दिव्य स्नान के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है तमाम सहमतियों के बावजूद समय ने अपना विद्रोह जारी रखा हुआ है वो भागता है और हाँफते हुए हमारे कान में कहता मैं फिर दोबारा लौटकर नही आऊंगा।
इस बात पर पहले हंसा जा सकता है बाद में थोड़ा नाराज़ भी मगर फ़िलहाल समय को बोध से बाहर कर दिया गया है।

ये देहातीत ही नही कालातीत होने का समय है। ये लिंग और अनुभूतियों की वर्जनाओं का संधिकाल है। ये मूल अस्तित्व के नाभकीय संलयन का प्रथम चरण है जिसके बाद स्मृतियों की बंजर ज़मी से नवसृजन की कोंपले फूटेंगी उन्ही के सहारे यथार्थ की धूप में हम अपनी देह को भस्म होने से बचा सकेंगे।

'न भूतो: न भविष्यति'

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