Sunday, July 31, 2016

फ़्यूजन

तुम इतनी असाधारण थी कि बिना किसी अपराधबोध के ऐन वक्त पर अस्वीकार कर सकती थी प्रणय निवेदन। तुम्हारी यही असाधरणता मेरे मन में कहीं गहरे धंस गई थी। पूर्णता के आवेगों के मध्य तुम जानती थी एक अमूर्त स्पेस को बचाकर रखना ताकि हमेशा बची रहे रिश्तों में एक उदीप्त लौ जिसके ताप में सिकती रहें आत्मा।
तुमनें किस्म किस्म से यात्रा को आरम्भ करके देखा मगर तुम्हारी समाप्ति हमेशा निर्विवाद रूप से अकल्पनीय रही तुमसे प्रेम और आदर एक साथ किया जा सकता था।
मेरे देह के गठन में किसी यूनान के देवता या लड़ाके की झलक नही थी मगर मेरे मन के गठन में तुमनें एक गहरी आश्वस्ति को अपनी तर्जनी की तूलिका से रेखांकित किया था उसके बाद कुछ भी अप्रिय होना सम्भावित ही नही था इस अप्रियता चाहे ईश्वर ही क्यों न चाह लेता।
दरअसल, तुम किसी जल्दी में नही थी न ही जिंदगी ने तुम्हें रिक्त स्थान की पूर्ति करो जैसे सवाल तुम्हें हल करने के लिए दिए थे।
एक दिन किसी पहाड़ी गेस्ट हाउस की खिड़की तुमनें खोली और वहां से दूर कही पीठ किए मैं खड़ा नजर आया तुमनें कोई आवाज़ नही दी बस खिड़की के कांच पर खुद को देखा और मुस्कुराई उसके बाद मेरी दिशा स्वतः बदल गई। मैं इसे आत्म सम्मोहन का नाम देता हूँ।
तुम्हें कहीं नही पहुँचना था इसलिए तुम्हारी यात्रा को रोमांच थोड़ा शुष्क मगर गहरा था। जैसे बांसुरी बजाते समय उसके कुछ छिद्र बारी बारी बंद करने और खोलने होते है तभी वो मधुर गान रचती है ठीक ऐसे ही तुमनें सवाल और जवाब के जरिए मेरी सुर परीक्षा ली हालांकि मेरे हिसाब से इसकी जरूरत नही थी मगर फिर मैंने पाया ये मेरी बेहतरी के लिए है,इसके लिए मैंने खुद को एक जगह इकट्ठा किया और खुद के अजनबीपन को दूर कर खुद को एक साथ एक जगह समग्रता से देख पाया।
तुम्हारे असाधारण होने पर मैंने एकदिन विषयांतर करते हुए कहा धरती और आसमान का कोई रंग नही होता हमनें अपनी सुविधा से उनके रंग तय कर दिए है इस पर तुमनें सहमति या असहमति नही जताई बल्कि कहा रंग देखनें की मनुष्य की अपनी सीमाएं है और स्मृति भी। उस दिन मै समझा कि तुम्हारा विस्तार अलहदा किस्म का है कथनों और परिभाषाओं में तुम्हारी कोई ख़ास रूचि नही है।
एक दिन तुमनें पूछा एकांत की क्या सीमा है तुम्हारे हिसाब से? मुझे लगा तुम एकांत की दुनिया पर बात करना चाह रही हो मगर दरअसल तब तुम मौन की व्याख्या करना चाह रही थी जब मै लौकिक दुःख बताकर चुप हुआ तब ये बात पता चली कि निसन्देह एकांत के बारे तुम अवसाद नही प्रेम की दृष्टि से एक सूत्र वाक्य सुनना चाहती थी।
तुमनें मेरे समानांतर कोई बड़ी छोटी रेखा नही खिंची बस रेखा को जोड़कर एक पुल बनाया और उस पर एक झूला डाल दिया जिस पर झूलते हुए मै कम से कम दो बार तुम्हें पुल पर अकेले खड़े और मुस्कुराते देख सकता था।

'फ़्यूजन का कंफ्यूजन'

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