Friday, August 25, 2017

#सुनो_मनोरमा-2

डियर मनोरमा,
परसों मैं घर से अचानक निकल आया है. थोड़ी देर मैंने सोचा कि मुझे कहाँ जाना चाहिए? फिर मुझे ये सवाल जंचा नही इसलिए  मैंने इसका जवाब नही तलाशा ,और कहीं के लिए निकल गया. घर एक खूबसूरत अहसास का नाम है ये आपको एक सुविधा देता है कि एक दिन लौटकर आने के लिए आपके पास एक ऐसी जगह है जहां आपका परिचय महत्वपूर्ण नही है. मगर कुछ दिनों से मैंने अपने घर से कुछ बातें की मसलन कि मेरे कितने दिन न लौटने पर उसे मेरी फ़िक्र होगी. घर कोई जवाब नही देता है शायद घर का ढांचा सवाल की बुनियाद पर खड़ा होता है इसलिए वो ताउम्र सवाल ही करता रहता है वो कोई जवाब नही देता है. प्राय: अस्तित्व का सवाल और एक अस्तित्व का लौकिक विस्तार घर को आकार देता है इसलिए घर ने चुपचाप मेरी बात सुनी. मैं थोड़ी देर दर ओ’ दीवारों को देखता रहा मगर उनकी अपनी एक बुद्ध साधना है इसलिए उनको देखा भी मुझे एक सीमा के बाद उनके ध्यान में खलल लगने लगा इसलिए मैंने देखना बंद किया और अँधेरे में घर की दीवार को अनुमान की मदद से छूते हुए बाहर निकल आया. निसंदेह बाहर रौशनी थी मगर वो अंदर जितनी अपेक्षित थी बाहर आकर मुझे वो उतनी ही अनापेक्षित लगी.
आज मैं जहां पर हूँ यह एक कमरा है मैं इसे घर कहने की आजादी से फिलहाल मुक्त हूँ. ये कमरा इस अनजान सफर पर मेरा नया दोस्त बना है मगर ये दोस्ती बेहद कम दिनों की है ये बात हम दोनों जानते है इसलिए मेरे मन को अनावृत्त होने में कोई भय नही लगा. घर की तरह इस कमरे के कान नही है इसकी चारों दीवारें आपस में कोई रिश्ता नही रखना चाहती है उनका अपना स्वतंत्र आयतन है. इस कमरे की दीवार पर एक तस्वीर टंगी है जिसे मैं एक पेंटिंग समझ सकता हूँ मगर इसमें एक नाव इस दशा में किनारे पर खड़ी है कि मैं इसे जीवन भी समझ सकता हूँ. इस चित्र में लहर थोड़ी शांत है इसलिए नाव को किनारे पर खड़ा देख मैं किसी यात्रा की कल्पना नही कर पाता हूँ. इस तस्वीर को देखकर मुझे तुम्हारी वो बात जरुर याद आती है जो तुम अक्सर कहा करती थी कि ‘ मेरे अनुमान हमेशा इसलिए गलत होते है कि मैं हर कहानी का सुखान्त चाहता हूँ’
रोज़ सुबह मैं खिड़की से दूर तक देखने की कोशिश करता हूँ मगर कभी-कभी स्व शर्मिंदगी में मुझे बिलकुल नजदीक देखने का भी जी चाहता है और मैं देखता-देखता अपने पैरो की तरफ लौट आता हूँ  मेरे पैरो की बनावट पर बचपन में मेरी मां बहुत मुग्ध हुआ करती थी ऐसा कुछ लोगो ने मुझे बताया था. मगर जैसे ही मैं बड़ा हुआ  मेरे पैर समतल धरातल पर थोड़े कमजोर साबित हुए धीरे-धीरे मेरे पैरों में एक ख़ास किस्म का वास्तु दोष व्याप्त हो गया, इसलिए मुझे खुद के बारें मे कभी कभी ऐसा जरुर लगता कि मेरी कदम जिस तरफ चलते है उन रास्तों का भूगोल थोड़ा बदल जाता है. मैं इस बात पर थोड़ा चिंतित भी रहता था मगर जब मेरी दोस्ती कुछ पहाड़ों से हुई तो उन्होंने मेरे मन के इस अन्धविश्वास को बेहद छोटा साबित किया. पहाड़ के सुनसान रास्तों पर उगी खरपतवारों ने मेरे पैरों की पैमाईश ली और बाद में मेरे तलवों को बताया कि मेरे पैरों पर कुछ नदियों ने अपने खत गुप्त भाषा में लिखे हुए है इसलिए मैं जब तक समंदर के किनारे तक नही चला जाता मेरी आवारगी का ये वास्तु दोष कुछ न कुछ असुविधा उत्पन्न करता ही रहेगा.  मेरे होने से किस किस किस्म की असुविधाएं उत्पन्न हो सकती है तुम उसकी साक्षी हो उनका जिक्र करने की शायद जरूरत नही है.
अगली बार मैं घर से निकल कर अगर कहीं जाउंगा तो वो कोई समंदर का किनारा ही होगा.शुभता-अशुभता से इतर मैं चाहता हूँ कि जिस जिम्मेदारी के लिए मुझे चुना गया है मैं उससे जल्द मुक्त हो जाऊँ.  मुक्ति एक चाह है जिसके लिए आदमी छटपटाता रहता है. चाहना का होना जिन्दा होने का प्रमाण है इसलिए मेरा निरपेक्षता का प्रयास प्राय: व्यर्थ ही साबित हुआ है.
अभी मैंने अपनी नब्ज़ देखी ये थोड़ी तेज़ चल रही है मगर यकीन करना मुझे बिलकुल डर नही लगा और न ही यह लगा कि एक अनजान जगह आकर कहीं मैं बीमार न पड़ जाऊं क्योंकि मुझे पता है ये किसी शारीरिक व्याधि का संकेत नही है दरअसल मैं तुमसे बातें कर रहा हूँ इसलिए मेरी देह थोड़ी हांफ रही है उसे मेरे मन ईर्ष्या हो रही है बाहर की दुनिया तो बहुत बाद में आती है पहले तो खुद तन और मन एकदूसरे को नीचा दिखाने की फिराक में लगे रहते है.
अच्छा फिलहाल के लिए इतना ही.
बाकी बाद में कहूंगा.

#सुनो_मनोरमा 

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