बातें दूरदर्शन की----
ये उन दिनों की बात है जब इतवार की सुबह
सात बजें रंगोली का बेसब्री से इंतजार रहता था पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपने गांव
जहाँ बिजली यदा-कदा ही आती थी ऐसे में इतवार की सुबह अगर बल्ब जलता अगर दिख जाए तो
सुबह इतने उत्साह से शुरु होती थी कि पूछिए मत..सुबह-सुबह बिना नहाए और कुल्ला किए
हम भाई-बहन अपने लकडी की बॉडी वाले टैक्सला के ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के सामने जम
जाते थे। रंगोली को देखने का गजब का उत्साह हुआ करता था। इतवार में सुबह 8.30 पर
बागवानी पर केन्द्रित कार्यक्रम अंकुर को अनिच्छापूर्वक देखना क्योंकि 9 बजे मुख्य
धारावाहिक आने का समय होता था। पहले रामायण देखी फिर महाभारत फिर चन्द्रकांता और
राल्को का भक्ति अभिनन्दन श्री कृष्णा। महाभारत देखने के बाद सम्बोधन में श्री
लगाने की आदत सीखी जैसे भ्राता श्री..:) जैसे ही महाभारत टीवी पर समाप्त होता था
हम सीधे गलियों से निकल कर अपने घेर मे आ जाते और वहाँ शुरु होता था हम बच्चो का
युद्ध और कौरव-पांडव की सेना मे ललकार गुंजती आक्रमण.....मुझे ध्यान है मैने और
मेरे मित्र ने बडे जतन से अपना-अपना गांडीव धनुष बनाया था जिससे हम तीरबाजी करके
युद्ध मे अर्जुन के माफिक लडा करते थे।
मैन उन दिनों की बात कर रहा हूँ जब बुधवार
को शाम 8 बजे चित्रहार देखने के लिए जल्दी खाना खाकर अपने अपने बिस्तर पर जम लिया
जाता था और टीवी के नजदीक चारपाई रखने की जिद हुआ करती थी। शुक्रवार को हिन्दी
फीचर फिल्म देखने के चक्कर में अपनी माताजी (दादीजी) से गालियां सुनने को मिलती थी
उन दिनों फिल्मों के बीच में विज्ञापन नही आया करते थे बस आधे घंटे का एक ब्रेक
हुआ करता था उसी बीच में हम जल्दी से खाना पीना निबटा लेते थे और फिर से फिल्म
देखने में लग जाते थे।
मै उन दिनों को याद कर रहा हूँ जब डीडी
मेट्रो पर इतिहास सीरियल देखना अच्छा लगता था..वक्त की रफ्तार के डीएम (दिव्य मोहन
बने रज़ा मुराद साहब) को देखने का एक अलग ही चस्का था फिर 3.30 पर श्रीप्रदा अभिनीत
अपराजिता भी देखना लगभग तयशुदा हुआ करता था।
डी डी पर ‘स्कूल डेज़’ ‘सी हॉक ’ ‘युग’ ‘बुनियाद’ ‘हम लोग’ व्योमकेश बक्शी
और शक्तिमान देखने का एक अजीब ही दौर रहा है अपना भी। डी डी की साप्ताहिकी देखना
भी इसलिए रुचिपूर्ण लगता था क्योंकि उसमें उस सप्ताह दिखाई जाने वाली फीचर फिल्मों
का नाम पता चल जाता था।
रामायण,महाभारत,चन्द्रकांता और श्री
कृष्णा ये ऐसे धारावाहिक रहे है जो दूसरों के घर जाकर भी देखें जैसा मै पहले लिख
चुका हूँ कि हमारे गांव मे लाईट का आना एक विरल संयोग का मामला होता था और हमारी
टीवी बडा था वह बैट्री पर चल नही सकता था ऐसे में हम दूसरे लोगो के घर बैट्री के
पोर्टेबल टीवी पर ये सीरिलय देखा करते थे और इन लोगो का घर इतवार के दिन हाऊसफुल
रहता था गर्मी और उमस के बीच हम सभी टीवी देखते थे एक जमीदार परिवार से ताल्लुक
रखने की वजह से हमे तो फिर भी बैठने के लिए चारपाई/कुर्सी आदि मिल जाती थी लेकिन
बाकि बच्चें तो जमीन पर ही बैठते थे और घर का मालिक अपने कमरे को हाउसफुल देखकर घर
का मुख्य गेट बंद कर देता था और बाकि बच्चे बाहर खडे गेट पीटते रहते थे वो दिन गज़ब
के थे जब इतवार से पहले ही इन बैट्री चलित टीवी के मालिको को ताकीद करनी शुरु हो
जाती थी कि भाई इतवार में बैट्री का इंतजाम रखना और बैट्री भी पडौस के गांव से
रिचार्ज़ करवा कर लायी जाती थी।
डी डी के समाचार प्रस्तुत करने वाले एंकर
अभी याद स्मृति में बसे है वेदप्रकाश,शमी नारंग,मंजरी जोशी.....और अंग्रेजी वाले
सुमित टंडन भी।
टीवी देखने और फिल्मों की परम्परा में एक
और रोमांचक चीज़ होती थी वह थी वीसीआर का गांव मे आना अलबत्ता तो गांव के जमीदार
टाईप के लोग वीसीआर किराये पर ला पाते थे लेकिन उनके लिए भी वीसीआर लाने के बाद
उसकी गोपनीयता बनाए रखने का बडा संकट होता था पता नही कैसे बात लीक हो जाती थी और
फिर आग की तरह गांव के बच्चों में यह बात फैल जाती थी कि फलाँ शख्स के यहाँ वीसीआर
आया हुआ है बस उसके बाद तो उसके घर पर जो धावा बोला जाता था पूछिए मत....घर का एक
बंदा बच्चों को भागने के लिए खडा रहता था।
....तो साहब ऐसी थी अपने गांव की दूनिया
जहाँ मनोरंजन के नाम पर ब्लैक एंड व्हाईट टीवी और चैनल के नाम पर डीडी वन और डी डी
मैट्रो हुआ करता लेकिन कुछ भी मजा खुब आता था आज जब हम डीटीएच युग मे जी रहे है तब
भी टीवी देखने का वो मजा नही मिलता जो हमने बचपन मे लूटा था।
सामजिक
होना अपने आप मे एक बडा कौशल है। कुछ अपने दोस्तों को देखता हूँ तो वे इतने
मिलनसार और सामाजिक किस्म के जीव है कि उन्हें सामाजिक रुप से मेल मिलाप मे रत्ती भर
भी संकोच नही होता है दोस्तों के यहाँ चाय से लेकर खाने तक की तारीफ करने में उनकी
हाजिर जवाबी का जवाब नही होता है ऐसे हंसमुख दोस्तों की वजह से हमारे जैसे मूक
लोगो की पत्नियों को भी आत्मगौरव को महसूस करने का अवसर मिलता है। एक हम है निपट
एकांतप्रिय और दोस्तों की बच्चों और पत्नियों से गप्पे मारने के मामलें में नितांत
संकोची मेरे सामने कई बार धर्म संकट तब होता है जब अच्छे खाने की तारीफ करने का
अवसर आता है ऐसा नही है कि मेरे पास शब्दाभाव होता है लेकिन स्वाभाविक रुप से मूंह
से वो बोल नही फूटते है जिससे सामने वाले को खुशी मिले....हाँ अब तो हालत यह है कि
दोस्तों के सामने भी चुस्त जुमलेबाजी से परहेज करने लगा हूँ क्योंकि मेरी बातों से
व्यंग्य का जायका आता है ऐसे बहुत से दोस्तों को शिकायत होने लगी थी।
खैर..सारांश
यही है कि आदमी को सामाजिक,व्यवहार
कुशल,हंसमुख और
मिलनसार होना न कि मेरे जैसा जो संकोचं
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