जीवन से हास्य बडे चुपके से गायब हो जाता है दिन भर गंभीरता और बौद्धिकता का लबादा ओढे आप क्या तो वैचारिक प्रखरता या फिर दार्शनिकता के शिकार हो जाते है। हास्य की विदाई का पता नही चलता है जब आपके आसपास कोई ठहाके मारकर हंसता है तब अन्दर महसूस होता है कि आप ये फन कब से भूल गए है....याद कीजिए आखिरी बार कब इस कदर हंसे थे कि पेट मे बल पड गये हो और आंख से पानी निकलने लगा हो...मै तो याद नही कर पा रहा हूँ आप शायद कर पाएं...।
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