Sunday, October 20, 2013

त्यौहारी सीज़न


त्यौहारी सीज़न

मन बैचेन....बडा विकल

मनोविज्ञान के व्याधि वर्गीकरण के लिहाज़ से यह सीधे तौर पर ‘क्रोनिक डिप्रेशन’ का मसला है लेकिन अवसाद की एक नियत मात्रा हर संवेदनशील जीव की नियति मे ही लिखी होती है इसलिए इस पर मै चिंतित होने की बजाय चर्चा कर रहा हूँ और मै अकेला इस से पीडित नही हूँ मेरे इर्द-गिर्द और भी ऐसे लोग है जो ठीक ऐसा ही महसूस करते है जब-जब कोई त्यौहार नजदीक आता है और बात केवल त्यौहार तक ही नही सीमित है हर कोई उत्सव या सामाजिक भागीदारी का आयोजन अपने साथ एक खास किस्म की बैचेनी लेकर आता है यह किसी के विरोध में भी नही है और न ही किसी की उत्सवधर्मिता को खारिज़ करने की प्रवृत्ति है लेकिन न जाने क्यों उत्सव के नजदीक आते ही एक अजीब सा सहम चढने लगता है बस मन मे कोई आशा होती है तो उसके जल्दी गुजर जाने की शहर की औपचारिकता से हमेशा ही चिढ रही है लेकिन उससे बचकर गांव जाने के उपक्रम में भी अब पहले वाली खुशी गायब होती जा रही है पहले कम से कम यह संतोष होता था कि दीपावली पर गांव मे जाकर पुराने दोस्तों से मिलना हो जाएगा लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो अब उसका भी चाव जैसा कुछ नही है बस एक परिपाटी के तहत जाना-आना होता है।
करवा चौथ से शुरु हुआ त्यौहारी आतंक भैय्या दूज़ पर समाप्त होता है मेरी पत्नी के लिए मेरे ऐसा व्यवहार निश्चित रुप अप्रिय किस्म का रहता है उसे मेरे इस तरह से सामाजिक दुर्भीति (फोबिया) से पीडित होने पर बडे अजीब से दौर से गुजरना पडता है। करवा चौथ से तो खैर मेरी सैद्धांतिक भी दूरी रही है यह तो स्टार प्लस के टीवी सीरियलों ने ग्लैमराईज्ड किया है बाकि बाजार की अपनी ताकत है जो सबको बाध्य कर देती है अन्यथा किसान परिवारों में करवा चौथ की व्रत नही रखा जाता था।
मन से उत्सवधर्मिता का विलोपन अपने आप इतना अजीब किस्म का होता है कि आप केवल होली दीवाली पर ही नही उदास होते है बल्कि अपने जन्मदिन, विवाह की सालगिरह और यहाँ तक बच्चों के जन्मदिन में भी कोई खास रुचि प्रदर्शित नही करते है कुछ दोस्तों की नसीहतों के चलते पिछले दो साल से दोनो बच्चों का जन्मदिन मनाया जाता है बाकि मैने खुद का जन्मदिन कभी नही मनाया पहले तो जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन ऑफ कर लेता था क्योंकि उस दिन शुभकामनाएं देने वालो की अचानक से भरमार हो जाती थी भले ही साल भर उनसे इतनी बात न होती हो लेकिन इन दो अवसरों पर फोन आकर मुझे शुभकामनाओं से आप्लावित कर देते थे फिर पत्नी की ये भी ताकीद रहती थी कि मुझे भी सबको फोन करना है वो सबकी डेट्स याद रखती और मुझे बताती फिर मै पूरे बेमन उनकी शुभकामनाएं लौटाने का उपक्रम करता था।
शुभकामनाओं का मसला एसएमएस तक ही सीमित रहे तब भी पाचन योग्य हो सकता है लेकिन फोन पर अपने जन्मदिन की विश सुनकर फिर मै बडा असहज़ हो जाता हूँ बडी मुश्किल से थैंक यू शब्द निकलता है पहले तो यही लगता कि जैसे हलक मे अटक गया हो ठीक यही स्थिति अपनी शादी की सालगिरह पर महसूस करता रहा हूँ।
यह सब पढने के बाद हो सकता है आपको इस बात पर भी सन्देह हो कि मै मनोविज्ञान मे स्नातकोत्तर एवं पीएचडी हूँ तथा पिछले 6 साल से एक विश्वविद्यालय में यही विषय पढा भी रहा हूँ लेकिन त्यौहार को लेकर मेरे मन में जो ज्वार-भाटा चलता है वह आपसे ब्याँ कर दिया है यह क्यों होता है उसकी अपनी वजह है जो मै जानता भी हूँ शायद एक बडी वजह तो यही है कि मै बदलते वक्त के साथ खुद को बदल नही पाया हूँ आज भी अतीत व्यवसनी हूँ इसलिए हमेशा अतीत का ही महिमामंडन करता रहता हूँ पुरानी यादें..पुराने लोग मुझे आज भी बांधे हुए है नए जमाने की नई चाल से शायद मै कदमताल नही मिला पाया इसलिए वर्तमान के अति उत्साही रफ्तार पसन्द समाज़ मे खुद को अप्रासंगिक पाता हूँ दूसरी एक वजह यह भी है कि मै जीवन को सहज रखना चाहता हूँ मेरी अधिकतम कोशिस यही रहती है कि बिना किसी भी औपचारिकता के जिया जा सके और शायद त्यौहारी मस्ती आपके मूल स्वभाव को उपेक्षित कर आपको हद दर्जे का हंसमुख और औपचारिक व्यवहार करने के लिए बाध्य करती है। 
यह मनस्थिति उदासी जैसी भी नही है बल्कि यह एक खास किस्म की निरपेक्षता का भाव है अनासक्ति जैसा जहाँ किसी खास दिन के आने का इंतजार या उत्साह मन में नही रहता है आध्यात्म और ध्यान के लिहाज़ से यह प्रखर स्थिति है लेकिन मै न तो आध्यात्मिक हूँ और न ही ध्यान मार्ग का पथिक इसलिए इस मनस्थिति का युक्तिकरण नही कर पा रहा हूँ यह बस अपने अस्तित्व का हिस्सा भर लगती है जो एक लम्बे समय से बनी हुई है या यूँ कहूँ जब मुझे संज्ञान है तभी से बनी हुई है। अब जो है सो है।

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