Monday, October 28, 2013

दिनचर्या

सुबह नौ बजे सो कर उठना दैनिक कर्म में केवल निवृत्ति को चुनना क्योंकि उसका कोई और समाधान नही है फिर दस बजे दीवार से दो तकिए महंतो की माफिक सटाकर अधलेटी मुद्रा में पेट पर लेपटॉप का आसन जमा देना दिन भर ऐसे ही बेरतरीब पडे रहना चाय,नाश्ता और लंच ऐसे ही बैड पर करना हाथ धोने और कुल्ला करने तक के लिए वाश बेसिन तक न जाना...बीच-बीच में लेपटॉप को उकताकर बंद कर देना पास पडी कुछ किताबों के पन्ने उलटना कभी ऊबना कभी ऊंघना बीच में मौका निकालकर एक नींद की झपकी ले लेना...दिन मे कई बार पत्नि से बहस करना कभी उसकी सलाह लेना कभी उसको सलाह देना शाम को जैसे ही सूर्य अस्त होने की तरफ बढे उस वक्त चैतन्य होना और मंजन-स्नान करना उसके बाद चाय पीकर अपनी दुपहिया पर नगर भ्रमण के लिए निकल जाना जेब मे खत्म होते पैसो की फिक्र मे थोडी देर चिंतित होकर गंगा किनारे बैठना फिर नहर किनारे वॉकिंग मैडिटेशन करना दूनिया को गरियाना दोस्तों को फोन पर लम्बी-लम्बी बातें करना यह जानते हुए कि अब कुछ लोग आपको 'एवाईड' भी करने लगे है....फिर शहर की रंगीनयत के बीच को खुद को सम्भालते रास्ते की परचून की दुकान से कुछ रसोई का सामान और मेडिकल स्टोर से बिना वजह की थोडी दवाई खरीदते हुए धीरे से अपनी काहिली के साथ घर मे घुस जाना...थोडी देर बच्चों से बतियाना और एक बार फिर लेपटॉप का आसन लगा लेना...इसी बीच डीनर को निबटा देना...बेशर्मी की हद तक कमरे मे लेपटॉप ऑन करे रहना यहाँ तक बच्चे लाईट ऑफ भी कर दें...फिर धीरे से उठना और इस्सबगोल की भूसी और दूध का कटोरा डकार कर चुपचाप लेट जाना...सोने से पहले उधडे ख्वाबों को फिर से बुनना और उसी उधेडबुन में पैर पीटते नींद के आगोश मे चले जाना...नींद में अतृप्त कामनाओं और असंगत किस्म के सपनों मे खुद से लडते रहना....और नींद में जागते रहना..।
(पिछले 3 महीने से इस किस्म की अवधूत जिन्दगी जी रहा हूँ)

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