Saturday, January 17, 2015

सात बजें के प्रलाप

सबसे बड़ा डर किसी और के लिए जीने का होता है। विस्तार से इसलिए भी भयभीत होना पड़ता है कि यह तय है एकदिन सब रिश्तें अपनी यात्रा की पूर्णता प्राप्त कर छूट जाने ही है। वर्तमान के तेवर कलेवर और फलवेर भविष्य में बनें रहें यह संदिग्ध सी बात है। किसी के जीवन में आदत के रूप में शामिल होने के अपने मनोवैज्ञानिक जोखिम तो होते ही है फिर आप यह नही कह सकते कि आज मै अनुपलब्ध हूँ। आपकी उपलब्धता से ऊर्जा का स्रोत बहता है मगर एकदिन आपको रिक्त होना ही पड़ेगा नियति का यह स्थापित नियोजन होता है फिर ऐसे में आपके तलबगार लत की तरह आपको तलाशतें फिरें और आप कहीं एकांतसिद्ध बनें अपने निर्वात की चिलम में कश मार रहें हो यह तो एक किस्म की ज्यादती सी लगती है।
जिंदगी हमारे साथ ज्यादती करती है और हम अक्सर जिंदगी के साथ मगर इन ज्यादितियों में पिसतें मानवीय सम्बन्ध ही है।
अपनत्व की भीड़ और लोकप्रियता के भी अपने जोखिम होते है हर रचनाधर्मी व्यक्ति इससे गुजरता है। लोकप्रियता का एक रास्ता निजता हरण की दिशा में भी जाता है जहां अपेक्षाओं का रावण छल बल से मन रूपी सीता का हरण कर लाता है अवसाद की लंका पर विजय प्राप्त करने कोई राम नही आता और हम कभी अपेक्षाहंता तो कभी भगौड़े होने का शाप ढोते ढ़ोते एकांत के सात समन्दर पार ही वीरगति को प्राप्त हो जाते है। कुछ कहानियाँ ऐसे ही अनकही रहने के लिए लिखी जाती है उनको पूरा करने के लिए खुद को अधूरा छोड़ना पड़ता है। दिक्कत यही है यहां सभी मोक्ष के अभिलाषी है।

'सात बजें के प्रलाप'

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