Wednesday, January 21, 2015

याद शहर

तुम चली गई मगर तुम्हारा शहर वहीं खड़ा रहा मेरे पास। ये शहर कब से हमारी बतकही और आवारागर्दी को देख रहा था। उसे हमारा ऐसा होना अच्छा लग रहा था तभी तो वो रोज़ सुबह थोड़ी जल्दी जग जाता था रोज़ शाम को मद्धम रोशनी फैला देता था। तुम्हारे जाने के बाद उसने मेरे कंधे को दो बार थपथपाया पहली थपकी शाबासी की थी और दूसरी दिलासा की।
मेरी धड़कन को देख उसने कहा लो  एक मुट्ठी हवा अपने अन्दर रख लो इसमें वहीं बासीपन है जो तुम जीना चाहते हो।
मै शहर के चौराहों से चिढ़ा बैठा हूँ सब रास्ते समकोण पर एक दुसरे को क्यों काट देते है रिश्तों की तरह। कुछ गलियों में मेरे कदमों के निशाँ गर्द के साथ छोटी छोटी उड़ान भरते है और फिर बिखर कर दम तोड़ देते है।
तुमसे दूर होते ही मेरे जूते के दोनों फीते खुल गए उन्हें बाँधने के लिए जैसे ही झुका मन के बंधन कसते गए कुछ अंदर कसकर बंधने लगा था। जूतों पर गर्द और आँखों में अमूर्त सपनें लिए मुझे आगे बढ़ना था मगर मै दो कदम आगे चलता तो चार कदम पीछे हट जाता तुम्हारा शहर मेरी इस बेबसी पर हैरान नही था शायद उसे पता था तुम्हारे जाने के बाद शहर में रुकना उतना ही मुश्किल था जितना तुम्हारे शहर में होते हुए भी तुमसे न मिलना।
बढ़ते बढ़ते बहुत दूर निकल आता हूँ। शहर पीछे छूट जाता है तुम आगे बढ़ जाती हो और मै शायद किसी एक पल में ठहर गया हूँ। यह ठहराव इतना स्थिर किस्म का है कि धीरे धीरे समय का बोध मिटता जाता है। दिन इतना लम्बा हो गया है कि रात होने का नाम नही ले रही है रात के होने का मुझे इंतजार भी है क्योंकि रात उस स्याह सच को समझने में मदद करेगी कि तुम और तुम्हारा शहर मीलों पीछे छूट गए है अब कल जो सवेरा होगा वो उस दुनिया का सवेरा है जो हकीकत में जीती है।
तुम और तुम्हारा शहर एक ख़्वाब की तरह मुझमें जिन्दा है शायद भोर का एक अधूरा ख़्वाब जिसे देखते देखतें आँख बीच में खुल गई है। मै सोना चाहता हूँ शायद थोड़ा रोना भी मगर तुम्हारे शहर की गोद में। तुम्हारी गोद अब शायद नसीब न हो।
फिलहाल कोई दुःख या अफ़सोस नही है बस जी थोडा बैचेन है। यह ठीक वैसी मनस्थिति है कि कोई ये न बता सके कि वो सुखी है दुखी या फिर दोनों।
सफर पर रहते हुए इन हादसों की जद में जब भी आता हूँ तब तुम,तुम्हारा शहर बड़ी शिद्दत याद आता है। सफर यादों को पैदा करता है और खुद दफन भी कर देता है। मुश्किल होता है यादों के सफर के साथ ट्रेन/बस में सफर करना क्योंकि आपके गुरुत्वाकर्षण का केंद्र आपकी परिधि छोड़ किसी अन्यत्र की छाया में दुबका रहता है और आप बस गिरने उड़ने बहने गलने की कुछ हलके झटके महसूस कर सकते है ठीक भूकम्प की तरह।मगर इन्हें समझने के लिए रिएक्टर स्केल खुद का बनाना पड़ता है आप बना पायें तो मन के वैज्ञानिक ना बना पायें तो इडियट इमोशनल फूल।

'सफर के अधूरे नोट्स'

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