Friday, July 18, 2014

पहली बारिश

सावन की पहली बारिश आसमान से टिप-टिप बरसता बूँद-बूँद पानी मानो हरजाइयों का खुद आसमान अखंड रुद्राभिषेक कर रहा हो बूँद धरती पर गिर पल भर में बिखर जाती और दिल नमी से हांफता रहता है। तुम्हारी आँखों की खुश्की काजल भी नही छिपा पाता है लबों पर महीन लकीरें मौसम की नही वक्त की मार की बनाई हुए थी तुम्हारे चेहरे का भूगोल कभी मेरे लिए जिन्दगी का नक्शा हुआ करता था तुम्हारी मंद मुस्कान से उन रास्तों का पता मिलता था जहां मै अनमना होकर जाना नही चाहता था। तुम्हारी कानों की दो बालियाँ मेरे लिए मन्दिर की घंटिया थी जिन्हें देख मन ही मन प्रार्थना के स्वर फूटने लगते थे।
देह की दृष्टि ध्यान में कैसे उपयोगी हो सकती है यह तुमसे सीखा था तुम्हारे हृदय के सूक्ष्म नाद को मै तुम्हारी धडकन से अलग करके सुन सकता था उसमे एक दिव्य आह्वान होता था तुम्हारी शिराओं के स्पंदन और देह ही अनुभूत गंध से अस्तित्व की गहराईयों की यात्रा पर निकलना कितना सहज हो जाता था। तुम देहातीत हो मेरी चेतना की उपत्यिका थी जिसमे सृजन के बीजमन्त्र और अपनत्व की स्वरलहरियों गूंजती थी
इस बारिश में मेरा रोम-रोम तुम्हारे अनुभूत स्पर्श को उतनी ही शिद्दत से महसूसता है जितना मेरे मन की अनंत ऋचाएं स्व स्वाहा के बाद प्रखर हो प्रज्ज्वलित हो उठती है।
आज जब तुम नही हो तो ये मौसम मुझे तुम्हारे लिए एक वसीयत लिखने की जिद पे उतर आया है मै मन से भीगता हुआ तन से रीतता हुआ यह लिख रहा हूँ मेरे इस अनादि यज्ञ की पूर्णाहूति तुम हो जिसके बाद केवल राख शेष बचेगी उसे प्रवाहित कर यदि कोई टूटा हुआ हृदय पुण्य का भागी होना चाहता है वो निसंकोच ऐसा कर सकता है। मन को मन से मृत्यु भी कहां मिला पाती है मृत्यु केवल देह को मुक्त करती है तुम जीवन की प्रतीक हो इसलिए  देहातीत दर्शन का सहारा लेकर तुम्हे पाने की अभिलाषा रखना मेरे लिए सदैव अपरिहार्य ही रहेगा। सच तो यह भी तुम्हें पाना न मेरी इस जन्म की अभिलाषा है न उस जन्म की तुम्हें खोकर की शायद मै खुद को खोज पाऊं।

(अंदर-बाहर के बदलते मौसम का असर)

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