उस बात को जाने भी दो जिसके निशाँ कल हो न
हो..
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यह एक फिल्म के एक
गीत का एक अन्तरा है. जाहिर सी बात है कि गाने फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से होते
हैं मगर ज़िन्दगी और फिल्म में एक समानता यह होती है कि दोनों ही क्लाइमेक्स से
गुजरती हैं इसलिए फिल्मों के जरिए हम खुद के सेल्फ का विस्तार देख पाते हैं.
क्या वास्तव में उस
बात को जाने देना चाहिए जिसके निशाँ कल नहीं रहेंगे. सिद्धांत: यह बात सही है . इस
कथन की ध्वनि कुछ-कुछ ऐसी है कि हमने भविष्य को देख लिया है और कल जिस बात का
संताप बने उसको आज ही समाप्त कर देते हैं. यह एक बुद्धिवादी बात है मगर अक्सर दिल
के मामलें बुद्धि के भरोसे डील नहीं होते हैं. दिल और दिमाग के द्वन्द ही प्रेम
में मनुष्य को कभी हिम्मत देते हैं तो कभी कमजोर बनाते हैं. यह एक शाश्वत
प्रक्रिया है. जो हमें प्रिय होता है हम उसे हमेशा के लिए सहेज कर रखना चाहते हैं
मगर यह भी उतना ही सच है दुनिया की हर प्रिय चीज को एकदिन उसके चाहने वाले से दूर
होना पड़ता है. इसे नियति ,प्रारब्ध,विडंबना या अस्तित्व का नियोजन कुछ भी समझा या
कहा जा सकता है.
प्राय: अनुराग द्वंद,
औचित्य, पाप-पुण्य, सही-गलत आदि के मध्य फंसा होता है आज तक कोई एक तयशुदा
फार्मूला नहीं बन सका है जिसके आधार में हम किसी सम्बन्ध के विषय में एक मुक्कमल
राय बना सकें. मानव व्यवहार के डायनामिक्स बहुत जटिल चीज है. एक लोकप्रिय अवधारणा
यह रही है कि मनुष्य के अंदर किसी किस्म की रिक्तता उसे बाहर प्रेम या अनुराग को
तलाश करने के लिए बाध्य करती है जबकि यह बात पूर्णत: सच नहीं है. कई बार हमारे
अंदर किसी किस्म की कोई रिक्तता नहीं होती है मगर हम अपने सेल्फ के एक्सटेंशन के
चलते कहीं कनेक्ट हो जाते हैं. हमें लगता है कि हमे इसी की तलाश थी.
किसी का मिलना और मिलकर
साथ चलना और फिर एकदिन अलग हो जाना लिखने में जितना सरल वाक्य बनता है असल ज़िन्दगी
में यह उतना ही जटिल अनुभव लेकर उपस्थित होता है. किसी दार्शनिक ने लिखा है कि
प्रेम भीरु लोगो के लिए उपलब्ध नहीं होता है यानि प्रेम में दुस्साहसी होना एक
अनिवार्य शर्त है मगर मेरा यह मानना है कि डरपोक और कायर व्यक्ति को प्रेम करने और
प्रेम पाने का उतना ही हक़ है जितना एक दुस्साहसी व्यक्ति को होता है.
एक समय के बाद हम
किसी को खोने को लेकर डरने लगते हैं कि क्योंकि किसी को खोना खुद को खोने के जैसा
ही होता है लगभग. इसलिए हम भविष्य की कल्पना में हम संयुक्त नहीं पाते तो शायद यह
कहना आत्मसांत्वना देने का एक तरीका हो सकता है कि उस बात को जाने भी दो जिसके
निशाँ कल हो न हो. ये कल की तकलीफ को आज भोगने की एक ईमानदार चाह भी हो सकती है
क्योंकि शायद तब इसकी तीव्रता अपेक्षाकृत कम हो.
अंत में यह कहूँगा कि
प्रेम या अनुराग में सबके निजी अनुभव होते हैं और किसी एक का अनुभव किसी अन्य के
किसी काम का नहीं होता है. इसलिए हम किसी के अनुभव को सुनकर उदास हो सकते हैं या
चमत्कृत हो सकते हैं मगर इससे हमारे अनुभव
का कोई मिलान संभव नहीं हो पाता हैं.
हाँ ! इतना जरुर है
कि जिस बात के निशाँ कल नहीं रहने की संभावना होती है उसे सोचकर हम यह जरुर सोचते
हैं कि जो आज है वो शायद कल हो न हो.
'कल हो न हो'
© डॉ. अजित
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