Thursday, October 7, 2021

दुश्मन-दोस्त

 

प्रिय दोस्त,

खत के दिन अब नहीं रहे मगर फिर भी कुछ बातें केवल खत की मार्फत ही कही जा सकती हैं. इसलिए यह खत लिखना जरूरी हो गया है. तुम्हें आश्चर्य होगा कि इस खत में तुम्हारे नाम से संबोधन नहीं है. कायर पुरुष किसी भी स्त्री को प्रिय नहीं होते है वे अपने अंदर की कायरता से नफरत करती हैं इसलिए कायरता से उन्हें एक खास किस्म की चिढ होती है. मगर मुझे लगता है तुम इस खत को देखकर अपनी उस चिढ पर काबू पा लोगी क्योंकि यह खत किसी कायर मन का परिणाम नहीं है. सम्बोधनों के अपने उलझाव होते हैं. हर संबोधन खुद में एक बंधन होता है. और नेह के बंधन को सोचने के बाद ही हमनें यह तय किया था कि हम एक दुसरे को हमेशा बन्धनों से मुक्त रखेंगे. इसलिए हम प्राय: सम्बन्ध को संबोधन की कैद से बचाते आए हैं.

तुम एकदिन कहा था कि दुखों के श्रोता बनने का साहस हर किसी के बस की बात नहीं होती है. उस दिन मुझे लगा था शायद तुम्हारे इस कथन में एक छिपी हुई व्यंगोक्ति है. मगर एकदिन मैंने पाया कि दुःख ही नहीं सुख के भी श्रोता बना रहना मुश्किल काम है. जब अपने किसी नजदीकी के सुख को बदले उस अपना एक नया दुःख सुनाने की चाह रखते हैं ताकि वह अपने सुख पर शर्मिन्दा महसूस कर सके. दुःख के बदले सुनाए गए दुःख हमें सांत्वना नहीं देते मगर हमारे दुःख ब्यान करने की इच्छा को कुछ दशमलव जरुर कम कर देते हैं.

कोई किसी के दुःख को सुनकर कब तक उत्साहित रह सकता है. हर कोई अपनी ज़िन्दगी में अलग अलग किस्म की लड़ाई रहा है ऐसे में वो दुखों का श्रोता बनना पसंद नहीं करता है. वह खुद से एक किस्म की रिहाई चाहता है और इस रिहाई की कीमत वो अलग अलग ढंग से चुकाता भी है. दरअसल सुख और दुःख बेहद निजी चीज है. बार-बार कहने पर दुःख अपना अर्थ खो देते हैं और सुख को नजर लग जाती है ऐसा अक्सर लोगों ने अपने अनुभव में पाया है.

मैं दुःख या सुख का भाष्यकार नहीं हूँ बल्कि मैंने खुद कुछ संदर्भो में दोनों की अभिव्यक्ति के मामलें में लगभग असफल पाया है. हम खुद के इर्द-गिर्द एक समय सीमा तक ही भटकना चाहते हैं. इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है प्राय: हम खुद से उकता कर बाहर देखना शुरू करते हैं.

जब मैंने यह खत लिखना शुरू किया था तो मेरे मन में कोई एक विचार नहीं था और न उपदेशक की भांति मैं तुम्हें तुम्हारी अज्ञानता पर ग्लानि से भरना चाहता था. दरअसल जीवन में अंतिम ज्ञान जैसी कोई चीज नहीं होती है हमें एक समय जो बात बेहद गुणवत्तापूर्ण लगती है कुछ समय बीतने के बाद वह हास्यास्पद या मूर्खतापूर्ण लगने लगती है. इसलिए शायद कहा जाता है कि कुछ भी पूर्ण सत्य नहीं है. आंशिक सत्य और आंशिक असत्य के मध्य कहीं वो बिंदु होता है जो हमे आकर्षित करता है.

मुझे पता है कि तुम अभी जीवन के उस दौर से गुजर रही हो जहाँ अपने निर्णयों की समीक्षा करने का मन नहीं करता है और मेरे ख्याल यह समीक्षा किसी काम आती भी नहीं है. मेरे ख्याल हमारा जीना महत्वपूर्ण है और हम कैसे जीते हैं इसकी वजह यदि आंतरिक हो तो जीना कुछ अंशों में आसान हो जाता है.

दोस्त या प्रेमी की भूमिका तुम्हें सदैव संदिग्ध ही लगी है शायद तुम्हें ऐसा लगता है कि एक समय के बाद मनुष्य का अपना एक वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है जोकि बहुधा कुरूप ही होता है. मगर मैं कहूंगा कि मनुष्य का वास्तविक या अवास्तविक चेहरा जैसा कुछ नहीं होता है. हमारा जीवन अभिनय की पाठशाला है. कभी हम बिना श्रोता और बिना दर्शक भी उत्कृष्ट अभिनय करते हैं तो कभी हम अपनी अभिनय क्षमता से चूक जाते हैं. यदि कोई तुम्हारे जीवन में अर्थ खो देता है तो मैं कहूंगा कि वह कहीं न कहीं अपनी अभिनय क्षमता से चूक गया है.

तुमनें अक्सर मुझे पूछा है कि सुखी होने का क्या मूलमंत्र है? इस सवाल का जवाब कथावाचकों के पास अधिक प्रभावी मिल सकता है बशर्ते तुम्हारा मन कीर्तन में रमता हो. मैंने हर बार इस सवाल का जवाब अलग दिया उसकी एक वजह यह थी कि सुखी होने का मूलमंत्र को निजी तौर पर विकसित करना होता है अलबत्ता तो मेरे पास ऐसा कोई मन्त्र नहीं है और यदि होता भी तो वह तुम्हारे किसी काम का नहीं था जैसे ही तुम उसका उच्चारण करती वो खुद ब खुद निस्तेज हो जाता. इसलिए मैं कहूंगा सुखी होने का मूलमंत्र खोजने की अपेक्षा तुम अपना वो मन्त्र खोजो जिसके लिए तुम्हें ध्यान लगाने की आवश्यकता नहीं पडती है.

लम्बे खत देखने में अच्छे लगते हैं मगर पढ़ते हुए हम कई दफा अरुचि का शिकार हो जाते हैं मगर मुझे उमीद हैं कि तुम इस खत को पढ़ते हुए अरुचि का शिकार होते हुए भी अंत में अपनी रूचि का एक केंद्र जरुर विकसित  कर लोगी.

बस और क्या लिखूं... तुम खुद समझदार हो. इन तीन शब्दों से कविता नहीं बनती हैं मगर किसी को सलाह देने के कारोबार से मुक्त अवश्य हुआ जा सकता है.

वैसे मेरी मुक्ति अभी संभव नहीं है. कविता या कहानी न सही मेरे पास कुछ असंगत बातें जरुर हैं जिन्हें तुम आरम्भ से पढ़ोगी तो कहानी लगेंगी और आखिर से पढ़ोगी तो कविता जैसा महसूस होगा. मेरे पास इतनी ही कलाकारी शेष बची है. शायद ये तुम्हें नई बात लगे. किसी भी सम्बन्ध में नूतनता को बचाकर रखना एक जिम्मेदारी भरा काम है. और मेरी गैर जिम्मेदारी तुम बखूबी जानती हो.

शेष फिर....

तुम्हारा दुश्मन-दोस्त

डॉ.अजित

 

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