Friday, November 14, 2014

नाट्य कला

नटराज की मूर्ति मेरे सम्मुख है रात भर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की टीकाएं पढ़ता रहा और ठीक अलसुबह ठंडे पानी से स्नान कर नंगे पाँव उस मन्दिर में चला आया जहां अब कोई पूजने नही आता जिसकी दीवारे नमी से तर है और जिसके कान प्रार्थना के स्वर सुनें बिना बधिर हो गए है।
सामनें खंडित प्रतिमा है दक्षिण की मूर्ति कला की एक उत्कृष्ट कृति मेरे सामनें है मगर खंडन भंजन की वजह से यह पहचान पाना थोड़ा मुश्किल है कि ये मूर्ति देवता की है या देवी की उलट पलट कर देखने पर यह तय कर पाया है यह अर्द्धनारीश्वर की प्रतिकृति है।
नटराज की मूर्ति जो अपने साथ लाया था उसे इस खंडित प्रतिमा के साथ रख कर मंदिर के गर्भ गृह से मृदंग उठा लाया और ठीक मन्दिर के बीच बैठ कर मृदंग पर थाप देनी शुरू की ये वाद्य यंत्र मुझे बजाने नही आता मगर तुम्हें सोचता जाता और मेरी उँगलियाँ और हथेली खुद ब खुद सधती जाती पहली दस मिनट मृदंग से केवल धूल ही उड़ती रही मगर जैसे जैसे अपनी बैचेनी की चोट से उसको जगाया उसकी तन्द्रा टूटी और उसने कराहना शुरू कर दिया मेरे चित्त की बैचेनियों के सुर उससे जा मिलें और  तुम्हारी स्मृति का दृश्य मेरी आँखों तैर रहा था हाथों की गति बढ़ती जा रही थी। मृदंग की आवाज़ से मन्दिर के अंदर पसरा सन्नाटा नृत्य करने लगा पक्षी अपनी अपनी मंजिल की तरफ उड़ चलें और फिर तुम्हारी दस्तक हुई मै मृदंग की थाप में इतना लीन था कि तुम्हारे पदचाप की ध्वनि न सुन सका तुम्हें किसने खबर दी थी नही जानता मगर तुम्हारा इस तरह से आ जाना शास्त्रीय लगा तुम मन्दिर के सबसे निर्जन कोने में समाधिस्थ बैठी थी और मै मृदंग के दोनों कानों पर थाप दे कर नई ताल निकाल रहा था संगीत के लिहाज़ से उसका कोई मूल्य भले ही न हो मगर मेरे लिए वो मेरे मन की बैचेनियों की उड़ान भरने का समय था तुम्हारा वहां उस समय होना इस बात की आश्वस्ति थी कि तुम मेरे इस अनगढ़ तरीके से मृदंग बजाने से आनन्दित थी शायद इस ताल का एक रास्ता तुम्हारे मन के तालाब से मिलता था जहां तुम्हारी भावनाएं स्थिर पानी की तरह सड़नी शुरू हो गई थी।
तुम अचानक से उठी और ठीक मेरे सामने आ खड़ी हुई तुम चाहती थी कि मृदंग पर मेरी थाप इतनी बढ़ जाए कि मन्दिर में हवा भी आपस में बात न कर सके और निसंदेह मेरी गति बढ़ती जा रही थी मृदंग भी हैरान था क्योंकि मेरे बजाने से आज उसकें ढीले सुर अकड़ कर कस गए थे।
लगभग आधे घंटे तक अपलक होकर सुनने के बाद तुम्हें न जाने क्या सूझी तुमनें नटराज को नमन किया और अपनी नृत्य की कलाएं खोल दी अब मृदंग पर मै था और मन्दिर के धरातल पर तुम्हारा नृत्य दोनों खुद ब खुद शास्त्रीय हो गए थे जबकि न मुझे मृदंग बजाना आता था और न तुमनें कभी नृत्य की कोई औपचारिक शिक्षा ली थी। मै एक वादक की भूमिका में था और तुम कला साधिका की और हमारी जुगलबंदी ने मन्दिर में साक्षात देव दरबार सजा दिया था सब कुछ इतना गहन और तल्लीन था कि समय का बोध मन से मिट गया था। भरतमुनि की बताई कलाओं मुद्राओं भाव भंगिमाओं का इतना सुंदर संयोजन था कि बतौर वादक मै तुम्हारे ताल के सभी सूक्ष्म संकेत समझ रहा था और तुम हर बार मेरी थाप से एक कदम आगे बढ़ती जाती थी।
फिर अचानक से तुम्हारी नजर मेरी लहुलुहान उंगलियों पर पड़ गई और तुम्हारी साधना क्रम वहीं टूट गया तुम्हारी दृष्टि के साथ मुझे पीड़ा का अहसास भी होने लगा फिर तुम्हारी दृष्टि में उल्लास का लोप हुआ और भाव विहल होकर तुमनें एक साथ मेरे दोनों हाथ मृदंग से अलग कर दिए यह संधिकाल था लगा मानो सतयुग को सीधा कलयुग से जोड़ दिया गया हो बीच के त्रेता और द्वापर गल कर बह गए हो उसके बाद तुम मेरे दोनों हाथ पास बहती नदी में डुबोए बैठी रही जब तक वो सुन्न न हो गए और रक्त जम न गया।
उसके बाद से हमारा कोई सम्वाद नही हुआ आज भी वो मृदंग मेरे खून से सना मन्दिर के बीचो बीच रखा होगा भले ही खून सूख गया होगा मगर उसके निशान उस पर मिलेंगे उसे फिर से गर्भ गृह में रखा जाना जरूरी है मगर अब मेरी स्मृति इतनी लोप हो गई है मै मन्दिर का रास्ता भूल गया हूँ इसलिए तुमसे आग्रह है गर हो सके तो उस मृदंग को सही जगह पहूंचाना देना ताकि वो याद रख सके अपने एक थोड़े अनपढ़ थोड़े अनगढ़ वादक को जिसनें उसको संगीत के किताबी पाठ से मुक्त कर खुद की ताल से कसा था मै चाहता हूँ मेरी बैचेन ताल की स्मृति उसके अंदर हमेशा जिन्दा रहे ठीक तुम्हारी तरह।

'ख्वाब का नाट्य रूपान्तरण'

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