Monday, November 3, 2014

वक्त

वक्त बेहद कम बचा था जितना कहना था उससे ज्यादा सुनना था जितना लिखना था उससे ज्यादा पढना था। मिलना और टूटना इसी बचे हुए वक्त में शामिल था। उसकी गति उसकी बाधा बन गई थी न जाने वो किस जल्दी में था वो रास्तों से रास्तें बनाता और उन पर चल पडता मगर फिर यूं हुआ एक दिन पहला रास्ता आखिरी रास्ते से मिल गया और उसने थके कदमों से जब मुडकर देखा तो वहां रास्ता नही एक जाल था वो कैद था अपने ही बुने विकल्पों के जाल में मगर उसकी फिक्र अभी कैद की फिक्र नही थी वो सोचता उम्मीद की हत्या के अपराध के बारें में जिसका वो वांछित अपराधी था उसने इतने महीन ढंग से उम्मीद की हत्या कि कोई साक्ष्य अभी तक किसी को नही मिला मगर कुछ होशियार लोगो की जांच में उस पर अपराध तय किया गया  और हाकिम ने मुहरबंद लिफाफे में फैसला सुरक्षित करके रख दिया। उसकी सजा को लेकर कयासों के दौर चल रहे थे जब उसने अपने एक दोस्त से पूछा कि क्या वो सच मे गुनाहगार है तब दोस्त का जवाब दोस्त वाला नही था दोस्त का जवाब आधा समझदारी से भरा था आधा नसीहत से। उसे अफसोस इस बात का रहा था कि उसे जानने समझने का दावा करने वाले लोग न जाने क्यों सरकारी गवाह बन गए थे।
वक्त की कमी दुनियादारी के वक्त से जुदा थी क्योंकि बाहर से देखने पर वह एकदम से खाली था उसके पास ऐसे कुछ करने लायक नही था जिसका कोई सामाजिक गौरव हो या फिर जिससे आर्थिक लाभ जुडा हो मगर वो रोज़ खुद के खिलाफ दौडना शुरु करता और वक्त इतनी तेजी से सिमटता कि कुछ ही पलों में उसकी मंजिल और रास्तों की दूरियां बढती चली जाती है। उसके पास मंजिल की संज्ञा मात्र थी वो विशेषण नही जानता था।
दरअसल उसको अन्यथा लिए जाने का श्राप ईश्वर ने उसके माथे को चुमते वक्त चस्पा कर दिया था जिसे वो रोज़ अपने स्पष्टीकरण के तर्को से खुरचता मगर वो कुछ इस तरह से चिपका था कि एक तरफ से उघडता तो दूसरी तरफ से और गहरा चिपक जाता क्योंकि विज्ञापन की तरह चिपके इस श्राप पर प्रेम की अपेक्षा का गोंद लगा था। अपेक्षा पर तो वह खुद ही खरा नही उतर पाया ऐसे मे आसपास के लोगो का उससे निराश हो जाना बेहद स्वाभाविक ही था।
एक दिन उसने भागते वक्त का हाथ पकड कर पूछा ऐसा क्या वजह है तुम हमेशा मुझसे आगे पीछे चलते है मेरे साथ चलना क्या कोई सामाजिक कलंक हैं? वक्त चुप रहा मगर मैने जैसे उसका हाथ छोडा वो मेरे हाथ में एक नक्शा थमा गया उस नक्शे पर कुछ आडे तिरछे रास्ता की लकीरें खिंची था वो उन्हें रोज समझने की कोशिस करता मगर उस नक्शे के मुताबिक़ एक कदम भी न उठा पाता।
वक्त की कमी से उसे कभी निराशा नही हुई वो निराश दिख सकता था मगर था नही वो थोड़ा थका हुआ नजर आता तो तो लोग बाग़ उसकी पीठ पर सम्भावनाओं की चाबुक लगाते और फिर वो और धीमे चलने लगता इसी वजह कोई नही जानता था। अगर कोई जानता भी तो वो उसे नही बताता बस आपस में खुसर फुसर करतें कयासों के बीच वो जिन्दा था बस ये बात वक्त की पहूंच से बाहर थी कब तक थी ये कोई नही जानता था।

'दौड़ता वक्त हांफता वो'

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