Sunday, November 9, 2014

उसकी आँखें

कहने के लिए वो महज दो आँखें थी मगर उसकी आँखें रेल की पटरी की तरह बिछी दो समानांतर दुनिया थी दोनों साथ जरुर थी मगर देखती अलग अलग। एक में हकीकत की स्याह सच्चाई तैरती तो एक में ख़्वाबों की हसीन दुनिया बसती थी।
उसकी आँखों की गहराई को देखना पहाड़ की चोटी से गहराई को देखने जैसा था जहां एकतरफ डर लगता वहीं नदियों झरनों की ख़ूबसूरती भी नजर आती। उसका पलक झपकना सावन के झूलें की पींग भरने के जैसा था चौबीस घंटे के दिन रात में उसकी आँखों के मौसम बदलते रहते अलसुबह आधी नींद से जागती उसकी आँखें गुरुद्वारे के सबद कीर्तन सी रूहानी लगती जब तक वो मूंह न धो लें उसकी आँखें अरदास करती लगती। दोपहर होते होते उसकी आँखों की चमक कामकाज में उलझ जाती फिर मै उसको शाम को देखता तो उसकी आँखों में सपनें करवट लेने लगते वो शिकायतों को आँख के  एक कोने में जमा लेती है उसकी कोशिस यही होती कि आंसूओं से केवल आँखों में नमी बनी रहें पहली दफा आंसूओं की कीमत उसकी आँखे देखकर पता चली उसकी आँखों में एक समन्दर था मगर उस तक पहूंचने के लिए वादों बातों की नाव पतवार नही बल्कि तैर कर पार पहूंचने का साहस चाहिए था। बिना शर्त का प्रेम उसकी एक मात्र शर्त थी।
रात तक उसकी आँखे थक जाती मगर उसकी थकी हुई आँखों की ख़ूबसूरती सबसे ज्यादा थी उस पर लिखी जा सकती थी कविता या गजल उसकी पलकें अनकही तल्खियों की गर्द से भारी हो जाती फिर मै दूर से दुआ की एक फूंक मारता उस तक यह दुआ नींद तक पहूंच पाती जब वो ख्वाबों में उलझ रही होती मेरे होने और न होने के बीच।
उसकी आँखें स्पर्शों से अनछुई थी यही उसकी सबसे बड़ी पाकीजगी थी उसकी आँखों की ढ़लान पर मेरी दुआ की फूंक ऊपर से नीचे की तरफ बहती तब मै पलकों पर जमी वक्त की स्याह शिकायतों की गर्द को महसूस कर पाता।
उसकी आँखें हया अदा दुआ सबको पनाह देती थी उसकी आँखों में आंसूओं की सूखी नदी पर ख्वाबों का एक पुल बना दिया था जिसकी मियाद पूरी हो चुकी थी मगर फिर भी बिना उसकी इजाजत के मैं नंगे पाँव उस पर गुनगुनाता उससे मिलनें पहूंच जाता उसकी आँखों में कैद लम्हों की जमानत पर वो मुझे रोज़ रिहाई दे देती मगर मुझे लौटना फिर उसकी दुनिया में ही था इसलिए मै अपनी सजा की माफी की कोई अर्जी उसकी आँखों की अदालत में दाखिल नही करता था।
दरअसल उसकी आँखें मेरे लिए महज आँखें नही थी बल्कि वो खुद को देखने का आईना था उसकी आँखों से खुद को देखकर यह समझ में आया कि जिन्दगी की तमाम मुश्किलों और झंझटों के बावजूद खुद को देख पल भर के लिए मुस्कुराया जा सकता है। उसके फैले काजल से पता चलता कि हर रात के बाद एक सुबह जरुर होती है कम से कम मेरे लिए उसकी आँखों को मद्धम मद्धम झपकतें हुए देखना एक सिद्ध साधना थी जिसके जरिए जिन्दगी के उतार चढ़ाव के बीच खुद को साध रहा था मैं। उसकी आँखों के बीच मेरी आँखें इतनी तन्हा पड़ गई थी कि वो खुद के लिए तलाश रही थी उसके जैसी आँखें क्योंकि वो मुझे देखती नही थी कभी शायद वो देखने के बजाए मुझे महसूसती थी मन ही मन सोते वक्त उसकी आँखें यही बयाँ करती थी सच है कि झूठ पता नही।

'उसकी आँखें-मेरी बातें'

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