Monday, December 15, 2014

सलाह

रफ़्ता रफ़्ता तुम जिंदगी का हिस्सा बन गए। जैसे कभी तुमसे मिलना नही चाहा था ठीक वैसे ही अब तुमसे कभी बिछड़ना नही चाहता हूँ। जानता हूँ रिश्तों को ताउम्र सम्भालनें का कौशल नही है मेरे पास। हर छटे छमाही भाग जाना चाहता हूँ खुद से भी बहुत दूर और रिश्तें एक दुसरे को देखकर सांस लेते है। तुम्हें खोना नही चाहता इसलिए एक पकी उम्र के बाद भी मै सोचता हूँ क्या कुछ सीखा जाना चाहिए जिससे तुम्हें अनंत तक सहेज सकूँ।
तुमसे वैसे तो कोई औपचारिक रिश्ता नही है मगर जो भी है वो एकतरफा नही है।हम बारी बारी से अपना अक्ष बदल देते है कभी तुम तत्पर दिखती तो कभी तटस्थ कभी मै तटस्थ तो कभी तत्पर। शायद यही वजह है दोनों साथ प्रायः बहुत कम दिखते है।
साथ दिखना वैसे भी एक लौकिक दिखावा भर होता है साथ दिखने से ज्यादा साथ होना महत्वपूर्ण होता है। तुम्हारे साथ होने के लिए तन एक गौण माध्यम है इसलिए उस तरह नही सोच पाता हूँ कि कब कहाँ कैसे मिलना है बल्कि मेरी फ़िक्र में यह बात शामिल रहती है कि तुमसे कैसे अज्ञात रहा जाए ताकि मेरी अनुपस्थिति में तुम कुछ बिखरे अहसासों को गुनगुनाती हुई एक नेह के धागें में पिरो सकों। जब तक मैं तुम्हारे सामने होता हूँ तुम खुद तक नही पहूंच पाती हो।मन की उलझनों की गिरह को गिन नही पाती हो। तब तुम्हारे लिए मेरे होना एक बाधा बन जाता है क्योंकि तब किसी की नही सुनती हो।
मैं चाहता हूँ कि तुम कभी अकेले में खुद से बात करो मन की संकरी गली के मुहाने पर पालथी मार के बैठ जाओं और हर आते जाते ख्याल की खबर लो।शायद उन्हीं ख्यालों में से एक ख्याल मेरा भी मिलेगा तुम्हें तुम उसकी गहराई की खुद पड़ताल करों।यह कोई परीक्षा नही है बस एक तरीका है जिसके जरिए सही गलत पाप पुण्य के मुकदमें में फंसा तुम्हारा मन बाइज्जत बरी हो सकता है।
तुम कुछ ऐसे पवित्र अहसासों की गवाही ले सकती हो जो मेरे मन के निर्वासन से निकल कर तुम्हारे दिल में आश्रय लिए  बैठे है।जरूरत पड़ने उन लम्हों से भी हलफनामा लिया जा सकता है जिन पर पारस्परिक स्पर्शों की एक महीन परत चढ़ी हुई है।
फिलहाल इस यात्रा के लिए इतना ही काफी है यदि तुम ऐसा कर पाई तो फिर खुद को ये तसल्ली दी जा सकती है कि हम मिलें या बिछड़े दोनों ही सम्मानजनक रहेगा हमेशा के लिए और यादगार भी।

'मिलना-बिछड़ना'

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