Tuesday, December 2, 2014

दिसम्बर की सुबह

देखते ही देखते खत्म होता जा रहा एक और साल। जिस साल तुमसे मिलना हुआ था उस साल की शक्ल मुझे याद है।वो दिसम्बर नही जनवरी के बाद का कोई महीना था जब तुम्हारी आमद हुई थी। साल का बदलना एक स्वाभाविक घटना है मगर वक्त का थम जाना या फिर किसी ख़ास लम्हें में अटक जाना कई अर्थों में सामान्य नही है। एक अरसे से मै खुद से मानसिक ऊब का शिकार रहा हूँ।एक ख़ास वक्त के बाद सब चीजे छूटती चली जाती है इसलिए कभी लगा नही था कि तुम्हारे दस्तखत मन पर इतने गहरे हो जाएंगे कि रह रह कर तुमको पाने और खुद को खोने का अहसास होने लगेगा।
इस साल की सर्दी में एक बुनियादी फर्क यह भी महसूसता हूँ कि अब कुछ नर्म यादें मुझे सतत ऊष्मित रखती है मै उनके सहारे सुबह शाम अकेला छत पर टहलता हूँ। दिसम्बर का यह महीना इतनी तेजी से मेरी यादों से फिसल रहा है कि मै तुम्हें दोनों हाथों में भर समेटना चाहता हूँ तुम्हारा अस्तित्व इतना आणविक किस्म का हो गया है कि मेरे लिए तुम्हारी सूक्ष्मता को संग्रहित करना आसान नही है।
कभी कभी आँखें मूंदे अर्द्ध स्वप्न में तुम्हें सोचता हूँ और फिर सोचता ही चला जाता हूँ अमूर्त आकारों को संधि विच्छेद करता हूँ तुम्हारी एक साफ़ आकृति मेरे पास है मगर वो किसी एक फ्रेम में आने से इनकार कर देती है वो जीना चाहती है निर्बन्धन। उसके इस पवित्र आग्रह से मेरा मन की आबद्धता क्षण भर में दूर हो जाती है और फिर मै तुम्हें सम्बोधन उपमाओं के अदृश्य पिंजरे से मुक्त कर देता हूँ।
तुम्हारी उन्मुक्त उड़ान से मुझे भी हौसला मिलता है और खुद को भी मुक्त कर देता हूँ। यह मुक्ति व्यापक अर्थों में एक किस्म का बंधन या जुड़ाव है पिछले साल दिसम्बर में जो बातें तुम्हारे बारें में सोच रहा था लगभग इस दिसम्बर में भी वही विषय है परन्तु उनकी लोच बदल गई है। अब तुम्हें पाने का जुनून या खोनें का भय नही है हाँ बस तुम्हें आसपास देखना चाहता हूँ।
अब हमारे बीच सम्वाद में शब्द धीरे धीरे लोप होते जा रहें है अब हमारे सम्वाद के अक्ष बदल गए है अब साँसे आपस में बातें करना चाहती है स्पर्श गहरी पवित्र पारस्परिक दोस्ती की अभिलाषा लिए प्रार्थनारत है। मन की अभिवृत्तियां शब्द जाल को परखना चाहती है वो बुद्धि और अह्म के चमत्कारों से इतर अपनी मैत्री की सम्भावना तलाश रही है।
साल का क्या है? इसे तो बीतना ही होता है हर साल मगर इस साल दिसम्बर मुझे तुम्हारे उस अज्ञात का पता देकर जा रहा है जिस पर दिल के पाक जज्बातों के खत लिखे जा सकते है मै इस उम्मीद पर अपने कागज कलम और मन को तैयार कर रहा हूँ कि मेरे लिखे ये खत तुम कम से कम अगले दिसम्बर तक जरूर पढ़ पाओगी। ये बैरंग मुझ तक न लौटें इसकी फ़िक्र इस दिसम्बर में भी मेरी धड़कन तेज और कान लाल कर रही है साथ ही एक आश्वस्ति भी है कि इन नए पतों पर पुरानी बात जरूर दस्तक देगी।
यह जाता हुआ साल कुछ कुछ भोर के स्वप्न को जागकर याद करने जैसा है कितना सच है यह बात शायद अगले दिसम्बर तक ही पता चल सकेगी तब तक के लिए खुद को छोड़ देता हूँ एक नए साल के हवालें तुम अच्छा बुरा सब सम्भाल लोगी इस बात के सहारे पहली बार नए साल में जाने से पहले डर नही लग रहा है मै मुस्कुरा रहा हूँ दिसम्बर की सुबह की तरह।

'दिसम्बर जा रहा है'

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