Sunday, December 7, 2014

अज्ञात

सारे आकर्षण अप्राप्यता के थे। अज्ञात के बन्धन ज्ञात की गिरह से ज्यादा मजबूत थे। अदृश्यता में गहरा रोमांच था। साक्षात का ओज कपूर की डली बन गया था। प्राप्य की कामना मन का एक अस्थाई आवेग था शायद उसमें कौतुहल या जिज्ञासा के बन्ध लगे थे। परन्तु  महज एक मुलाक़ात ने मेरा ऐसा साधारणीकरण किया कि तुम तय नही कर पाई कि तुम्हारे मानकों की सीढ़ी पर किस पायदान में मेरा पैर फंसाओं  ताकि मुझे तेजी से नीचा गिरते हुए से रोक सको। अनायास और अनियोजित ढंग से निर्मित हुई छवि से मेरे कंधे झुक गए थे पुरूष होने के नाते यह एक नकारात्मक बात थी क्योंकि तुम्हें केवल मेरी वक्त और हालात से लड़ती चट्टान सी छाती देखने का अभ्यास था।
तुम्हारी आँखों में काजल लगा था जिससे उनकी ख़ूबसूरती में इजाफा हो रहा था और इधर मेरे आँखों में आंसूओं के तालाब में काई ज़मी थी जिसकी हरियाली से तुम हैरान तो हो सकती थी पर खुश नही। मेरी हथेलियों की रेखाओं का भूगोल इस कदर बिगड़ा हुआ था कि उनकी करवटों की वजह से तुम्हें हाथ मिलाते वक्त एक अजीब सा खुरदुरापन महसूस हुआ जबकि तुम्हारे स्पर्शों में नमी का औसत स्तर कायम था उससे त्वचा की शुष्कता थोड़ी कम तो हुई परन्तु फिर भी स्पर्शों की पकड़ में एक न्यूनतम बाधा मेरी वजह से आड़े आती ही रही।
तुम्हारे आग्रह इतने आत्मीयता से भरे हुए थे मै चाहकर भी इंकार नही कर पाया। जबकि मेरे अवचेतन में यह बात सदियों से टहल रही थी कि अज्ञात दर्शन का आकर्षण बड़ा होता है न्यूनतम रहस्य बचाकर रखना मेरे लिए जरूरी है यह बात समझ नही पाया।बेफिक्री में जिंदगी जीते हुए मैं वो कौशल अर्जित न कर सका।अभिव्यक्ति और पारदर्शिता में इतना लिप्त रहा हूँ कि खुद को कैसे सरंक्षित रखना है यह भूल गया था।
यद्यपि तुम्हें मुझमे सबकुछ निराशाजनक ही लगा हो ऐसा भी नही है परन्तु तुम्हारी पलकों के झपकनें के अंतराल में मैंने वो भाव पढ़ लिया था जो तुम्हारी आँखों की खोई चमक में आवारा टहल रहा था और बुदबुदा रहा था कि नही! ये शख्स ऐसा नही है जिससे दोबारा मिला जा सके। पहली मुलाक़ात में तुम्हारी न्यूनतम अपेक्षाओं की गर्मी से मेरे अस्तित्व का ग्लेशियर इतनी तेजी से पिंघला कि मेरे मन में एक बाढ़ आ गई और तुम युक्ति से अपनी एकल नांव लेकर चुपचाप दूर निकल गई और मै अपलक तुम्हें देखता ही रह गया।
तुम्हारी तत्परता और सदाशयता ने मुझे अस्वीकृत नही किया ना ही तुम मुझसे निराश थी बस तुम्हारे मन के आँगन में मै तेज बारिश की तरह बरस कर बह गया था जबकि तुम मुझे चाय का कप थामें मद्धम झड़ी वाली बारिश में गुनगुनाना चाहती थी। मुझमें में सतत आकर्षण बनाए रखने के लिए तुम्हें किसी एक ऐसे यूनिक तत्व की तलाश थी जो तुम्हें लोक में नजर न आया हो। सम्भव है मुझमें वो तत्व रहा भी हो मगर मेरी प्रस्तुति में चुस्ती का अभाव था इसलिए वो तत्व ने मै व्यक्त कर पाया और न तुम तलाश पाई और अंतोतगत्वा तुम मुझमें आकर्षण खो बैठी।
फिलहाल तुम्हें चुप/विरक्त/तटस्थ देखकर तुम्हारी मनस्थिति का पता चलता है तुम अब मुझे देख/सुन/पढ़ कर अब विस्मय से नही भरती धीरे धीरे तुम्हारे अन्तस् में पसरा मेरा अनंत विस्तार सिमट रहा है इस पर मै खुश हूँ या दुखी यह बता पाना मुश्किल है मेरे लिए।
ज्ञात या प्रकट का दोष,अपेक्षाओं के भंजन का अपराधबोध फिलहाल स्वयं के ऊपर लेता हुआ मै तुम्हारे सहित अन्य तमाम चेतनाओं से साक्षात मिलना स्थगित और अस्वीकृत करता हूँ।खुद को बचाये रखने का एकमात्र यही उपाय फिलहाल मुझे नजर आ रहा है। एक भूल को बार बार दोहराना मेरे लिए अब यातना न बनें और किसी के मन पर मेरे चयन को लेकर अपराधबोध/खीझ के बादल छाएं ये इस जन्म में अब और नही चाहता। उम्मीद है तुम इस आत्मस्वीकृति को मेरा अंतिम आकर्षण समझोगी।

'अज्ञात से ज्ञात'


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