Monday, October 27, 2014

मौसम

उसका आना एक संयोग था मगर उससे मिलना एक हासिल की गई उपलब्धि। उसकी अपनी एक लय गति और ऊर्जा थी वो न ज्यादा उलझी हुई बातें करती और न ज्यादा सुलझी हुई संकेतों में अपनी बात कहना उसकी खासियत थी उसके संकोच को पढने के लिए बस एक पल के लिए अपनी आंख बंद करनी पडती, उसकी बातें कविता उपन्यास दर्शन या मनोविज्ञान की नही अपने आसपास पसरे जीवन की बातें थी वो बेजान खुशियों को मन के धागे से पिरोकर एक खूबसूरत माला बना देती जिसे पाकर कोई भी आम इंसान देव तुल्य हो सकता था। उसकी बातों की एक अपनी खुशबू थी आप कितने ही व्यस्त हैरान परेशान क्यों न हो उसकी बातें हर वक्त चेहरे पर एक इंच मुस्कान लाने की कुव्वत रखती थी।
वो दूर देश से आई पुरवाई के जैसी थी जो उमस भरी गर्मी में मन की धरती पर अपने स्नेह की बिना शर्त बौछारें बरसा कर चली जाती वो जितना कह पाती उससे ज्यादा उसका अनकहा रह जाता है वो रोज़ खुद से बातें करती मन ही मन तय करती कुछ सवाल मगर फिर खुद उनके जवाब सोच अक्सर चुप हो जाती। उसकी बातों मे बच्चों सा कौतुहल, बडो सी फिक्र और सखा सा अधिकार का इतना बेहतरीन समन्वय रहता है कि कई दफा खुद की वास्तव में परवाह होने लगती थी।
वो फूलों झीलों नदियों रास्तों से गहरी दोस्ती रखती थी उनके कान में खुशी के मंत्र फूंकने की उसकी ताकत पर ईश्वर भी मुस्कुरा सकता था रोज शाम वो अनजान रास्तों पर निकल जाती खुद से गहरी मुलाकातों के लिए उसने अपना रचा हुआ एकांत था जहां रोज़ शाम खूबसूरत लम्हों को मन की आंखों मे कैद करती हुई विदा होते सूरज़ के माथे को अपनी फूंक से सहला देती फिर वो शाम को धीरे से आने को कहती ताकि वो खुद को तलाश सके गुम होती रोशनी में। गति और बदलता वक्त उसका सबसा बडा भय था।
उसका सब कुछ अपना था अपनी हवा अपना सूरज़ अपना चांद और अपने तारे। वो रच लेती थी अपनी एक समानांतर दूनिया फिर उनसे बतकही करती उसकी आंखों में दुस्वप्नों की घुसपैठ थी मगर उसे भूलने का हुनर आता था। उसकी आंखों समंदर की गहराई थी वो अपने समा लेती थी अपने आसपास के दुख। उसके अन्दर खुशी को एक स्ंक्रमित बीमारी बनाने की एक जिद देखी जा सकती थी और निसन्देह वो इसमे एक हद तक कामयाब भी थी। वो बिखरे टूटे सम्बंधो की कुशल उपाचारिका थी उसकी बातें मरहम का काम करती थी।
उसको जब भी उदास देखना सबसे मुश्किल पलों मे से एक होता बिना किसी दुनियावी के रिश्तें के दुआ में उसकी खुशियों की दुआ भी शामिल रहती थी क्योंकि जीवन मे वो उस सूरज़ की तरह थी जिसके छिपने पर मन उदास अनमना हो जाता जिससे मिलना भर रोज़ जिन्दगी से लडने की वजह देता था।
सबसे बडी बात यह थी उसकी मुस्कान दिल को राहत देती उसकी पलकों का पॉज़ खुद को उसकी नजर से देखने की वजह देता उसकी आंखें उस दूनिया में जाने का रास्ता देती जहाँ खुद से प्यार होने लगता और उसको खोने का डर जीने से बडा था इसलिए उसकी नाराजगी मे सबसे बडा अपराधबोध यही होता है कि शायद खुद हमें खुद की ही नजर तो नही लग गई।

‘वो कौन: ना मै जानूं ना वो

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