Wednesday, October 8, 2014

दोस्ती

उसकी सबसे घनिष्ठ दोस्त ने उसको लगभग डराते हुए कहा था तुम भोली हो भावुक हो यहाँ के लोगो की चालाकियां नही समझ पाओगी यहाँ बने रहने का एक ही सूत्र है लोगो पर संदेह करों उन्हें इतनी जल्दी अपना मत मानों मत बनाओं उन्हें अपनी जिन्दगी में लत के जैसा। उसकी दोस्त समझदार थी जिसकी हंसी में निजता की दीवार थी वो यहाँ अपने मन की कहने आती दूसरों को तटस्थता से पढ़ने आती दोस्ती के रिश्तें कमाने के लिए यह जुआघर उसके लिए किसी काम का नही था। दोस्त ने दोस्त की फ़िक्र में उसे खूब समझाया था मगर मन के राग कब किसकी फ़िक्र करते है वो जुड़ते है तो जुड़ते ही चले जाते है उसे कभी कभी उसकी बातों पर पल भर के लिए संदेह होता था मगर उसका दिल कहता सारी दुनिया एक जैसी थोड़े ही होती है सब ठग नही होते है। उसने दोस्त की सलाह को दरकिनार कर गुफ़्तगू का सिलसिला जारी रखा।
अभी तक वो आश्वस्त नही है कि वो गलत है या सही एक पल उसे लगता कि उसका कोई प्रयोग नही कर सकता है वहीं दुसरे ही पल अपने दोस्त की सलाह याद आनें लगती कहीं बाद में तन्हाई में दुःख का सबब न बनें ये एक दुसरे की जिंदगियों में यूं इस तरह से शामिल होना।
इसी फ़िक्र और ख़्वाब के बीच वो जीती जा रही थी एक अजीब सी दुनिया जहां रोज़ सुबह के किस्से शाम तक दम तोड़ देते थे जहां रोज नई वजह जन्म लेती थी और मै इन दो दोस्तों के बीच अटके उस खरपतवार सरीखे शख्स को याद करता हुआ कभी हंसता तो कभी उदास हो जाता है। रोजमर्रा के विचित्र संयोगों में एक यह भी संयोग शामिल था जिसको देखते देखते सुबह शाम अपनी गति से धीमी हो चली थी रात और दिन की लम्बाई घटती बढ़ती जा रही थी। इस ज्वार भाटें का ताल्लुक यकीनन आसमान पर टंगे चाँद से नही था।

'दो दोस्त एक परिचित और मै'

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