Thursday, October 9, 2014

हिचकी

कुछ हिचकियाँ बेनामी होती है शापित होती है बदहवास दर ब दर भटकनें को दिल और दिमाग मिलकर भी इनके वास्तविक स्रोत को नही तलाश पाती है वो आती है अचानक और कह जाती है
याद करना और याद न आना सबके बस की बात नही होती। कभी कभी याद आती है उन अक्सों की जो वक्त की गर्दिशों में उलटे कदमों आँखों से ओझल होते चले जाते है बिन बताएं।

"हिचकी है कि याद तुम्हारी
समझ नही पाया
मगर कुछ न कुछ अंदर टूटा जरुर है
कतरा कतरा लहू रिसता है
मुस्कानों के रास्तें
कोई टोटका आज तक
न तुम्हारा पता ला पाया
न हिचकी रोक पाया
एक लम्हें के इस कम्पन में
छिटक कर गिर पड़ता हूँ
यादों के तहखाने में
जहां अब तुम्हारी दुआ की
रोशनी नही पहूँचती है।"

© डॉ.अजीत

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