Thursday, October 16, 2014

दुआ में वक्त

जिन्दगी ग्यारह के पहाड़े जैसी आसान कब थी ये तो हमें सत्तरह की पहाड़े को रटाने की जिद पे अड़ी थी।
इसकी जिद के सदके उठाते उठाते हमारी पीठ झुक गई और दुनिया को लगा कि हम सजदे में थे।
जिन्दगी के आर-पार झाँकने के लिए खुद को ही जमा नफ़ी किया और हासिल सिफ़र पाया। जिन्दगी की जिद और हमारी गुस्ताख अक्ल में कभी यारी न हो सकी इन दोनों के बीच तन्हा दिल सिसकता रहा वक्त बेवक्त।
हमारे रतजगों के किस्से सुनने को ये उम्र कम पड़ेगी वो महज़ किस्से नही चरागों के सफर की दास्ताँ है रोशनी की चालाकियों की नजीरें है और अंधेरों के खूबसूरत मिराज़ हैं।
जरूरत पड़ने पर उन खतों को जलाकर रोशनी पैदा की जा सकती है जो अभी हाशिए पर लिखे पड़े है मन की स्लेट को साफ़ करने के लिए तुम्हारे दुपट्टे का एक कतरा उधार मांगा जा सकता है।
नाखून कुतरते या अलसाईं अंगडाईयों के निगेटिव अभी तक मन की अंधेरी लैब में टंगे है उनका कोई मुक्कमल अक्स नही बनता है सब के सब धुंधले है।
कुछ वाजिब वजह है तो कुछ गैर वाजिब मगर हमारे दरम्यां कुछ वजह जरुर खड़ी है उनको दरकिनार करने के लिए झरनों नदियों के पानी से कुछ नही होगा आंसूओं का सैलाब भी इनकी बुनियाद को हिला नही सका इन वजहों को काटने के लिए वक्त ही बेरहम आरी ही कुछ काम आ सकती है।
फिलहाल, वक्त के बदलने की फितरत सबसे बड़ा सहारा है बस दुआ यह करों कि वक्त मौसम सा बदल जाए आजतक तो यह कमबख्त हमारी मुट्ठियों से रेत सा फिसलता रहा है।

'दुआ में वक्त'

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