Saturday, October 4, 2014

मिलना बिछड़ना

कुछ लोग रास्ते में छूट जाते है कुछ का छूटना पहले ही दिन से तय होता है कुछ हाथ छुड़ा कर छिटक जाते है यह मेल-मिलाप और बिछडन एक शास्वत प्रक्रिया है और स्वाभाविक भी विज्ञान की कसौटी पर भी यह सिद्धांत: खरी उतरती है अत: किसी राग के चलते अवसाद में रहना या आत्मदोष में जीना किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नही है। जो आपके अस्तित्व का हिस्सा है वह हर हाल में आप तक लौटकर आएगा और जो नही है उसे आपके आग्रह या संताप भी वापिस नही ला सकते है इसलिए नेह के बंधन इतने मत कसो जो बाद में तकलीफ हो सम्भावना हमेशा सांस लेती है मिलकर बिछड़ने की और बिछड़कर मिलने की बस समस्या तब होती है जब हम एकाधिकार चाहते है एकाधिकार एक किस्म का अतिवादी घुन है जो रिश्तों को धीरे धीरे चाटकर उन्हें अंदर से खोखला बना देता है इसलिए आग्रह अपेक्षा बंधन से मुक्त सांस लेते रिश्तें समाधिस्थ सन्यासी के समान जीवंत दिखते है और राग की चासनी में लिपटे रिश्तें अपनी लघुता के भंवरजाल में फंसकर हमारे मन की शान्ति का अपहरण कर लेते है।
इसलिए कहता हूँ जो जा रहा है उसको सम्मानपूर्वक जाने दो यदि आपकी चेतना सम्वेदना प्रज्ञा से उसका तत्व चिन्तन जुड़ा होगा तो अवश्य वह लौट कर आएगा दुनिया गोल है इसका एक मानवीय प्रमाण है यह मनुष्य की प्रवृत्ति भी है उसको राग स्नेह की दुहाई देकर मत रोको क्योंकि अलबत्ता तो वह रुकेगा नही और अगर रुक भी गया तो फिर उसका मन वह मन नही बचेगा जिसमे आपकी आसक्ति बची हुई है।
स्वीकार भाव में सम्पादन रहित जीवन जीने का कौशल सीखना आवश्यक है अन्यथा जीवनपर्यन्त दुःख द्विगुणित हो आपका दुखद मनोभंजन करते ही रहेंगे।
हे ! चराचर जगत की अपेक्षाओं के टूटने से आहत चेतनाओं अपने होने का उत्सव मनाओं ये मिल गया ये खो गया ये सब मन के भ्रम है न कभी कोई मिलता है न कभी खोता है हम खुद को किसी से जोड़कर खुद की यात्रा आसान समझने की भूल करते है जबकि सच तो यह है कि जीवन की चैतन्यता की यात्रा हमें नितांत ही अकेले पूर्ण करनी होती है इसे मंद मुस्कान के साथ पूरा करना है या शिकायत अफ़सोस करते हुए यह नितांत ही आपका चयन है।

'इतवारी प्रवचन'

1 comment:

  1. परम सत्य ... ... ... पर ये मिट्टी के पुतले ... मानव नामक जीव ... हम अक्सर भूल जाते हैं हमारे आने से पहले भी दुनिया चल रही थी जाने के बाद भी बखूबी चलेगी ........

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