Tuesday, October 14, 2014

निठल्ला दर्शन

समय का आभास बड़ा विचित्र धोखा है। सम्भावना का डीएनए क्यों नही परिवर्तित होता है हर बार किसी को एक यह लगता है कि मेरे द्वारा बहुत किया जा सकता है सिवाय मुझें छोड़कर। कुछ करना या कुछ भी न करना दोनों के अंतिम अर्थ पुरुषार्थ से जोड़ देना समाज की वृहत परम्परा का हिस्सा है। कर्म करना गतिशीलता और जीवित होने का सार्थक प्रमाण माना जाता है  मगर यह करना बाह्य अधिक है आंतरिक कम इसलिए कुछ भी न करना महज़ यथास्थिति बनाए रखने की युक्ति नही है दरअसल सक्रियता का अर्थ सामाजिक उपलब्धियों से जोड़कर देखा जाता है मगर निष्क्रियता में भी एक अंतक्रिया निहित होती है निष्क्रिय बाह्य दर्शन है आंतरिक रूप से उसमें इतने स्तर गूंथे हुए है कि हर स्तर की अपनी क्रियाएं है और अपने कर्म। समय के सापेक्ष दौड़ जीवनपर्यन्त चलती रहती है समय हमारी ऊर्जा का सुचालक है परन्तु समय क्या है क्या वक्त का बीतना समय है? या वक्त के सामने से हमारा गुजरना समय का एक संवेदी अहसास भर है। लोक के दबाव सतत रूप से क्रियाशील या कर्मशील होने की प्ररेणा जरुर देते है परन्तु यदि मन की यात्रा चेतना की गति का सहारा लेने की अभ्यस्त हो जाए तो फिर वहां अन्तस् के स्तर पर इस दबाव के प्रति एक विद्रोह भी उपजता है वह जीना चाहती है अपनी स्वाभाविक लय में जो निश्चित रूप से स्थैतिक भी हो सकती है। कुछ न करना जड़ता नही है बल्कि व्यापक अर्थों में उसकी गतिशीलता करने से कई गुना अधिक है क्योंकि कुछ भी करने की प्राय: वजह बाह्य होती है और कुछ न करने की आंतरिक। ज्ञात और अज्ञात के मध्य रेंगता यह दर्शन बाहर से जितना बौद्धिक किस्म का प्रतीत होता है अंदर से यह उतना ही विचित्र है। खुद को ठीक ठीक जान लेना और फिर खुद को स्वीकार भाव से अस्तित्व के हवाले कर देना निसंदेह दुर्लभ और साहस का विषय है परन्तु बाह्य दबावों के चलते खुद को एक सम्पादित यंत्र की  तरह देखना या निर्देशित करना बेहद मुश्किल काम है। मौटे तौर पर दुनिया में दो नस्लें है एक एचीवर्स की दूसरी लूजर्स की यह कोरा उपलब्धि का मनोविज्ञान है इसमें अस्तित्व की मौलिक प्रवृत्ति का प्राय: हनन होता है यहाँ दोनों ही दबाव की सूली पर टंगी मानव चेतनाएं है परन्तु हमें सहजता और उदाहरण तलाशने की आदत है इसलिए हमारी पीठ लूजर्स की तरफ होती है और अंगुली एचीवर्स की तरफ मगर मै एक साम्य बिन्दु पर दोनों को समान पाता हूँ बल्कि लूजर्स को एक पायदान अधिक दुस्साहसी। अलबत्ता तो शब्दकोष के इस शब्द पर ही मुझे सख्त ऐतराज़ है क्योंकि खोने की श्रृन्खला आंतरिक संदर्भो में कुछ पाने की कड़ियाँ भी हो सकती है मगर श्रेष्टता के बोध में उनकी पड़ताल करने कोई नही जाता है।
जो सतत अपनी सामाजिक प्रस्थितियां खोते चले गए या खोते जा रहें है जरूरी नहीं वें पलायनवादी हो उनकी आंतरिक लोच का विस्तार किसी भी कथित रूप से सफल या स्थापित से अधिक हो सकता है सम्भव है वो सिद्ध परम्परा के अज्ञात वाहक हो। चैतन्यता के स्वाभाविक नियोजन में घटना एक मूल्यवान अवधारणा है यह स्वत: घटित होती है या इसको घटित करने के नियोजन का सहारा लिया जाता है यह साधनों का विमर्श हो सकता है परन्तु कर्म जड़ता सक्रियता और निष्क्रियता के बीच बिन नियोजन के मौन बैठे हर मनुष्य में अपार सम्भावना है मगर वह सम्भावना बाह्य कारणों से नही आंतरिक प्रभावों से संचालित होती है वो समय की मांग करती है और धैर्य की भी जिसके लिए शायद यह उम्र भी कम पड़ सकती है।

'निठल्ला दर्शन'

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