Thursday, October 23, 2014

आँखों देखी जंग

कुछ इल्म से अदावत हुई कुछ अदब से मुहब्बत हुई फिर एक दिन ख्वाब से जागा तो तुम्हें अपने सिराहाने पाया तुम्हारी आंखो मे झांकने की कई दफे नामुकम्मल कोशिसें की मगर तुम्हारी झुकी पलकों में महज़ हया नही थी उसमें एक ऐसा इनकार भी शामिल था जो हर बार तुम्हारी पडताल करने पहले मेरी आंखो पर अपना हाथ रख देता था।
तुम आंखो मे काजल लगाना भूल सकती थी मगर ये इनकार पलकों पर ऐसा टंगा था कि इससे तुम्हारी खूबसूरती मे दिन ब दिन इजाफा ही होता था आंखों का रास्ता दुनिया के लिए फिसलन भरा था मगर मेरे लिए यह तरल था क्योंकि मै चल नही बह रहा था और बहते पत्थर के बहने के लिए तुम्हारी आंखो से ज्यादा मुफीद जगह कोई नही थी।
तुम्हारी आधी सोई आधी जागी आंखों में समन्दर सी खामोशी थी मगर उनमें दरिया का शोर भी था जिसको मै केवल सोते हुई ही सुन पाता था। तुम खुद से जितनी बातें करती थी उन सबकी चुगली तुम्हारी आंखे मुझे कर देती फिर मेरे पास कहने के लिए कुछ न बचता मै केवल देख सकता था सन्देह की नदी, भय के जंगल और असुरक्षा की झाडी जो उग आती थी तुम्हारी आंखों में लगभग रोज़।
बंद पलकों का एक पुल रोज़ देखता था जिसके सहारे झूलते हुए जाना जा सकता था मन की करवटों का हिसाब जो तह दर तह काई की तरह दिल के जज्बाती पत्थरों पर जमती जा रही थी। देर रात नींद के दबाव और भोर में उठने के आलस के बीच तुम्हारी आंखों का एक अपना भूगोल होता था जिसमें समानांतर जिन्दगी कें अक्षांसों की दूरी नापने के लिए शिकायतों का फीता होना जरुरी था जब तुमसे मेरा कोई राफ्ता ही नही था तब कैसे शिकवें –शिकायतों की लम्बाई का फीता तैयार करता तुमसे ज्यादा तुम्हारी आंखो से मेरी जान पहचान थी और उनका भाष्य लिखने के लिए मुझे किसी सन्दर्भ की जरुरत नही पडती थी बल्कि मेरे लिखे एक एक हरफ से दुआ का काम लिया जा सकता था ऐसा कुछ मौलवियों नें अपनी अन्दरुनी तकरीर मे कहा था कभी।
तुम्हारी दोनो आंखों के बीच समतल दिखने वाली जगह यथार्थ का फर्श लगा हुआ था जिस पर नंगे पैर चलने की इजाजत थी वैसे तुमसे बिन इजाजत लिए मैने तुम्हारी एक आंख को बागी बना दिया था एक आंख में कुछ देर मै आराम फरमा सकता था और दूसरी आंख में तुम अपने सपने देख सकती थी फिर एक दिन ये राज़ जाहिर हो गया तब दिमाग ने अपना खेल कर दिया उसके बाद मेरी आमद तुम्हारी आंखों मे चुभने लगी ये बात मुझे तुम्हारे एक भांप की तरह उडे आंसू ने बताई वो अपनी हकअदायगी की आखिरी कीमत चुकाने मुझे केवल यह बताने आया था कि मै तुम्हारे चश्में-तर का मुस्तकबिल नही रहा हूं जज्बातों ने बगावत कर दी है सही-गलत पाप-पुण्य की एक जंग रोज़ बाबस्ता तुम्हारी आंखो में चलती है।
जिन आंखों की खूबसूरती पर कायनात को भूला जा सकता था वहाँ के अन्दरुनी हालात इतने खराब थे कि मेरा जिक्र तो छोडिए सोचने भर से आंसूओं को अपनी जगह छोडनी पड जाती थी अपनी ज्यादती और तुम्हारी कैफियत का ख्याल करते हुए मै बहुत दूर निकल आया हूं अब तुम्हें देख नही सकता और कभी देख सकूंगा इसकी उम्मीद बेहद कम है मगर तुम्हारी जरीन आंखों की पैमाईश मेरी आंखों में कैद है जिनकी किस्सागोई अब कभी कभी मेरी भी आंखे नम कर देती है ये ईलाज़ के माफिक है और मेरी आंखो की रोशनी तुम्हारे नाम के आंसूओं से रोज़ बढ जाती है यह पढकर तुम मुझे मतलबी समझ सकती हो वो भी मतलबी कहीं का।

'आँखों देखी जंग'

No comments:

Post a Comment