Thursday, October 9, 2014

यादों के जंगल

कुंवारी सर्दी की एक अघोषित दोपहर है तीन नम्बर पर पंखा सेवक की भांति चक्कर काटता हुआ चलने का आभास दे रहा है खिड़कियो से आती रोशनी आँखों में चुभती है मगर उन पर परदें खींचने की हिम्मत नही है। एक पुरानी कॉटन पॉलीस्टर मिक्स की चादर छाती तक ओढ़कर हाथ का तकिया बनाए एक करवट लेटे हुए तुम्हारे बारें में सोचता हूँ और सोचता ही चला जाता हूँ।
कमरे की नमी,आधे अँधेरे की ठंडक और पंखे की हवा ने इतना मजबूर किया कि चादर में पूरे पैर नही पसार पाया।दोनों पैर दो के अक्षर की तरह जुड़कर मुझे गर्माहट देने का जतन करते है साथ ही दोनों पैर एक दुसरे से गणितीय समीकरण की तरह जुड़ने की युक्ति बनाते है।
याद नही कब से इसी करवट पड़ा हूँ मेरे कान का आकार मेरी बांह पर छप गया इससे एक तरफा दबाब का तुम अंदाज़ा लगा सकती हो कायदे से यह वक्त सोने के लिए मुफीद हो सकता है मगर तुम्हें सोचते हुए कब नींद आ पाती है। मेरे वजूद के बोझ से बिस्तर भी हैरान और परेशान है तकिया उलटा पड़ा हरजाई की तरह शिकायत कर रहा है मानों उसे मेरी बांह से रश्क हो रहा है। इस बेडशीट के अपने शिकवें है मेरी अवसाद की गर्द से इसको बैचेनी होंने लगी है ये इस बात पर भी थोड़ी हैरान है कि एक मुद्दत से इस पर मेरा एक भी आंसू नही टपका है।
इन सब अमूर्त आकृतियों के बीच मुझे देख ये कमरा भी उकता गया है दीवारों ने मेरी तरफ पीठ कर ली है बस एक अदद छत है जो ऊपर से सीधे मेरे दिल और दिमाग में एक साथ झांकती है उसे थोड़ी बहुत मेरी दिक्कतों का अंदाज़ा है।
इस कमरें की साँसे मुझे यूं बेतरतीब पड़ा देख घुटती है उन्हें नए एहसास की ताजी हवा और रोशनी चाहिए तुम्हें याद करते करते तुम्हारी बातें याद करने लगता हूँ तुम्हारी चुप्पी इस कमरें के रोशनदान में अभी तक टंगी हुई है तुम्हारे कहकहें अब पंखे की पंखडियों की सवारी करते करते बेहोश हो जाते है। इस बॉम्बे डाईंग की बेडशीट पर तुम्हारा लॉ ऑरेल में रंगा एक बाल अक्सर पड़ा मिलता है जबकि तुम यहाँ कभी नही आई शायद ये खुद तुमसे बगावत करके यहाँ तक पहूंचा है होते हुए दर बदर ।ये खुद ही उलझता रहता है और खुद सुलझ जाता है तुम्हारी यादों के अलावा बस एक यही तुम्हारी निशानी मेरे पास बची है तुमने तो कुछ भी देने से इनकार कर दिया था ये सब आ गई मुझ तक खुद ब खुद।
मै ऊब कर अंगड़ाई लेता हूँ जिसमे आधी ऊबासी भी शामिल है मेरी पलकों के छज्जे से तुम कूदकर आँख में आइस-पाइस खेलने लगती हो तुम मुझे दिखती भी हो और नही भी मेरे अक्स की पड़ताल लेने पर पता चल सकता है उसमे तुम्हारा कितना वजन शामिल है।
ख्यालों की तुरपाई करते समय एक टुकड़ा सुख तुमसे उधार लेता हूँ रोज़। दरअसल यह सुख की शक्ल में दुःख है जिसको जोड़ने के बाद उसकी सही तासीर का पता चलता है।
शाम होने को है अपनी उलटी चप्पलों को सीधा करते हुए मै निकल जाता हूँ नगें पांव उस जंगल की तरफ जहां कभी तुम्हें देखा था पहली बार वहां एक नदी कहती है अपने किस्से एक बरगद देता है दिलासा और कुछ कांटे बताते है यथार्थ देर रात इसी बिस्तर पर मै लहुलुहान लेटा मिलूंगा मगर तुम इस बात पर हैरत मत करना कि बिस्तर पर एक भी धब्बा नही है हो सके तो बस यकीन करना जो करना बेहद मुश्किल है।

'यादों के जंगल: डायरी नोट्स'

No comments:

Post a Comment