Tuesday, August 12, 2014

थैंक्स

सदियों भटका
जिसकी राह में
नदियों से पता पूछता फिरा
समंदरों से गुमशुदगी की वजह पूछी
दरख्तों की गवाही ली
हवाओं से चुगली की
झरनों से पड़ताल की
रेगिस्तान से लेकर ग्लेशियर तक
जिसके निशां ढूंडे
उसकी एक झलक
फेसबुक पर मिली
वो लाइक कमेंट शेयर टैग में व्यस्त रही
मै प्रोफाइल पेज़ और लिंक में
वेब मोबाइल ब्राउजर इन्टरनेट का मोहताज़ था
उसका मिलना
इस माध्यम में मिलना
उतना ही दुर्लभ था जितना
रेत में पानी
नदी में नाव
समन्दर में टापू
जंगल में आश्रय
वो दिखी मगर मिली नही
जब तक इनबॉक्स में संदेश भेजा
वो डिएक्टिवेट हो कर ओझल हो गई
कई बार जिन्दगी भी
फेसबुक की छद्म प्रेमिका जैसी लगती है
दिखती है होती नही
कहती है बोलती नही
इसलिए जिन्दगी और फेसबुक पर
कम भरोसा करना
सीख जाते है लोग
दुनिया उतनी ही बुरी है
जितनी समझी जाती है
फेसबुक और ज़िन्दगी के तजरबें
हमें मिलकर समझदार बना रहे है
थैंक्स जुकरबर्ग  !

© अजीत

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