Saturday, August 2, 2014

प्रवचन

जीवन का अर्ध सत्य जान लेने का दावा किया जा सकता है. सत्य,असत्य पाप पुण्य की सबकी अपनी अपनी परिभाषाएं है अपने अपने संस्करण हैं. धारणाओं में जीवन जीना एक ख़ास समय के बाद अप्रासंगिक लगने लगता है ऐसा लगता है हर आने वाला दिन पिछले दिन के अनुभवों को ख़ारिज करके हमने एक नयी दुनिया से मिलवाना चाहता है. अपने अस्तित्व को जानने के प्रक्रिया है आप काम से कम इतना तो जान ही पाते है कि कुछ भी तय नही है सब कुछ इतना अनियोजित होता है कि हम नाहक की मान्यताओं के जंगल में निपट अकेले घूमकर अपने अभ्यारण्य की सीमा नापते फिरते है.मन को संवारने के लिए मन की गुलामी करनी पड़ती है द्वन्द को बचा कर रखना पड़ता है. ध्यान और आध्यात्म के कुछ ख़ास अवस्थाओ को छोड़कर सामान्य जीवन में मन को रोज़ टटोलने के लिए एक खास किस्म के साहस की जरुरत पड़ती और वो साहस खुद को दांव पर लगाकर ही मिल पता है. रोज़ नया सूरज नयी दुनिया का पता दे सकता है बशर्ते आप अपेक्षाओं के ताप में खुद को गलने से बचा सकें.जीवन का अपने एक प्लेवर होता है और हम अपनी अधिकांश ऊर्जा उसके संपादन में व्यय करते है ताकि इसको खुद के मुताबिक़ कस्टमाईज्ड कर सके. जीवन के साथ बहना सीखने के लिए होश का तरणताल चाहिए होता है फिर आप गुरुत्वाकर्षण शून्य होकर बह सकते है तैर सकते है और मन के वेग से उड़ भी सकते है मगर यह सब जानते जानते उम्र बीत जाती है और जब इसका पता चलता है तब न हिम्मत बचती है और न ऊर्जा.

मन कर्म और  भरम के फेर...निजी प्रवचन पार्ट-१   

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