Sunday, August 17, 2014

फ़िक्र

तुम साथ होती हो तो मन की कुमुदिनी खिली खिली सी रहती है तुम्हारा बिखरा काजल अनामिका से ठीक करना चाहता हूँ मगर न जाने क्यों रुक जाता हूँ तुम्हे ऐतराज़ हो ऐसा भी नही है तुम्हारी बेख्याल चुप्पी भी सतत मुझ पर फ़िक्र की मद्धम मद्धम बारिश करती रहती है तुम अक्सर मुझसे असहमत रही हो इसलिए भी तुम्हारे अंदर सम्भावना सदैव संरक्षित और पल्लवित होती रही है।
बहुत दिनों से तुम्हें अजीब कशमकश में देखता हूँ तुम्हारे बाल बिखरे लब शुष्क है दोनों हाथों की अंगूठियाँ आपस में बदली हुई है तुम्हारे बाएँ हाथ का कंगन खुरदरा हो गया है पहली दफा तुम्हे थोडा परेशान देखा है वजह की पड़ताल मै कर लूँगा मगर तुम मुझसे बेहतर समाधान जानती हो इसलिए सलाह का कारोबार नही करूंगा।
चलो एक काम करते है कुछ दिन अपनी अपनी फ़िक्र सिराहने रख सो जाते है शायद ख्वाबों के रास्ते हम तुम उन इश्तेहारो को जी सके जो हमारी पीठ पर छपें है बरसों से,तुम्हारा इसमें भी इंकार होगा जानता हूँ इसलिए इन दिनों बस तुम्हें देखता रहता हूँ  कहता कुछ नही। खुश रहा करो तुम्हारी नसीहत तुम्हे सौंप रहा हूँ मै तो यह कलंदरी सीख गया हूँ अब तुम्हारी बारी है।

बस के सफर में भी क्या अजीब बतकही शुरू हो जाती है बेवजह...! 

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