Monday, January 27, 2014

हम गांव से निकले बच्चे....

हम गांव से निकले बच्चे....

हम गांव के मध्यमवर्गीय परिवारों के बच्चे थे जो गांव से शहर में अपने सपनो को सच करने और दुनिया को बदलने आये थे हम अपनी शर्तो पर जीना चाहते थे हम सच्चे दोस्त थे यारों के यार...! हमारे बाप गांव के छोटे-बडे किसान थे या फिर मेहनतकश मजदूर हममे से कुछ के पिता सरकारी मुलाजिम भी थे कोई मास्टर था कोई पुलिस मे कांस्टेबल तो कोई बाबू था। हमारी मां अपने साथ वियोग का दहेज़ लेकर आयी थी वो हमारे पिताओं के लिए हमेशा दूर की ही बनी रही अपनी मां को उनको साथ बतियाते/गपियाते शायद ही हमने कभी देखा हो  वो गांव मे चूल्हा फूंकती पशुओं को चारा डालती और हमारे पिता खेत,शहर,कस्बों में हमारे उज्ज्वल भविष्य के लिए जद्दोजहद करते थे। हम मे से जिनके पिता किसान थे उन चेहरे पर खेती बचपन से ही उग आई थी उनके हाथों में फावडे की रगड से उपजे कठोर त्वचा  के स्थाई निशान थे लेकिन फिर भी वो शहर आये  अपनी खुली आंखो में वो सपनों की बंदरवार लेकर आये  उनकी कमर पर अपने  घर परिवार की जिम्मेदारी की बेल हमेशा चढती रही लेकिन वे उसके बोझ मे नही दबें बल्कि उसको जलती धूप से भरी दुनिया में एक छांव की तरह माना जहाँ सुस्ताने के लिए जगह मिल सकती थी।
हम वो बच्चे थे जिन्होने कक्षा 6 में पहली बार एबीसीडी पढी थी कक्षा 5 तक अक्षर ज्ञान आज की लडाई में हमारे लिए हमेशा निष्प्रयोज्य ही रहा और हमें लगा कि हम कक्षा 6 में भी कक्षा 1 की पढाई पढ रहे थे। हम गांव से निकले वो बच्चे थे जो शहरों में किराये पर कमरा लेकर पढते थे हमारे पास एक गैस का चूल्हा हुआ करता था जहाँ हम दूध को भुला कर चाय पीने की आदत विकसित कर रहे थे और शायद हम यह मानते थे कि चाय पीने से हमारे आंखे देर तक खुली रहेंगी यह पढने और बढने की होड थी जहाँ हम सोना नही चाहते थे बस अपने ख्वाबों की दुनिया को पाना चाहते थे।
हमारी मां ने कभी हमे अपने आंचल मे पनाह नही दी वो हमारे आने पर खुश और जाने पर गमज़दा जरुर रही लेकिन कभी जाहिर नही किया हमारी माओं नें घर पर पिता से छुपकर घी बेचकर हमारे लिए पैसे जोडे और हमें तब-तब दिए जब हमारी जरुरतें पिता की आमदनी से बडी हो गई थी हमारे लिए हमारी मां किसी रिर्जव बैंक से कम नही थी।
हम गांव के बच्चे कभी अपने भाई या बहन को दिल खोलकर यह नही बता सके कि हमे उन्हे कितना प्यार करते है खून के रिश्तें में बंधे होने के बाद भी हम अजनबियों की तरह ही रहे।
एक वक्त ऐसा भी आया कि हमारे कुछ दोस्त शहर की रंगीनीयत और अवारागर्दी में खोकर रह गए और बर्बाद हो गए लेकिन हम में से जिनकी पीठ पर जिम्मेदारियों की बेल उगी थी उन्होने हमेशा खुद को दृढता से खडा रखा और कभी बहके भी तो उसके बाद का अपराधबोध इतना भारी था कि हमे दोबारा भटकने की हिम्मत ही न हुई।
आज भी हम गांव से निकले बच्चे अपने वजूद की जद्दोजहद में रोज पीसते है हम जीते है समानांतर कई जिन्दगियाँ जिसमे से किसी के हम नायक है तो किसी के खलनायक।
हमारे कंधो पर अपेक्षाओं का इतना बोझ था कि हम नए रिश्तें का वजन नही उठा सकते थे इसलिए आदतन अंतर्मुखी बने रहें हम दुनिया से अंजान नही थे लेकिन दुनिया जरुर हमसे अंजान थी। हम गांव से निकले बच्चें अपने रिश्तेदारों को एक कठोर सन्देश देना चाहते थे कि वो हमारी काबलियत पर बेवजह सवाल न खडा करें और वह कठोर सन्देश देने का जरिया एक अदद सफलता ही थी।
हम गांव से निकले बच्चे अपने धुन के दुस्साहसी लोग थे हमारा वर्ग बहिष्कार हो चुका था और नया वर्ग हमें अपना नही रहा था क्योंकि उनके लिए हम कौतुहल का विषय थे मैत्री का नही।
दुनियादारी सीखते गिरते-सभंलते और ठोकर खाकर फिर शून्य से शुरु करते ऐसी थी हम गांव से निकले बच्चों की दुनिया। प्रेम के मामलें में हम अभागे ही रहे क्योंकि रोजाना अपेक्षाओ के जंगल में अकेली भागती हांफती जिन्दगी मे उसके लिए जगह ही नही बची थी क्या तो हम सफल होने की कोशिस कर सकते थे या फिर प्रेम इसलिए हमने प्रेम को कभी तरजीह नही दी हमें बडा आदमी बनना था क्योंकि हमारे लिए स्वाभिमान से जीना सबसे बडा लक्ष्य था अपने मां-बाप का सीना गर्व से चौडा कर देने का सपना लेकर हम शहर मे आये थे। हम गांव के बच्चें वो बेहूदे लोग थे जिन्होने समाज़ और दुनिया का सच जान लेने के बाद भी अपना सपना नही बदला और ना अपनी जिद बदली हम रोजाना खुद को झोंक कर पका रहे थी सपनो की रोटी इस दुनिया को कुछ कर दिखाने की कीमत पर...।
हम गांव के बच्चों की असफलता ने सबसे अधिक हमारे पिता को तोडा क्योंकि उनके लिए हमारी जीत उनकी मेहनत का फल था लेकिन हमारी मेहनत का फल बहुत से मोर्चो पर लडता हुआ हम तक पहूंचा कभी अंग्रेजी भाषा तो कभी देहात की बोली तो कभी जाति ने हमारी सफलता को हमसे उतनी ही दूर किया जितनी शिद्दत से हम उसे पाना चाहते थे लेकिन हमारी जिद आज भी उतनी बडी है जितनी कभी थी इसलिए हम गांव से निकले बच्चे जब जब शहर में आत्मविश्वास की सीमाएं तोडते है तब-तब लगता है कि हमारी मंजिले सुविधा से नही असुविधा से ही हमारे करीब आती है यह हर गांव से निकले बच्चें की नियति है और शायद प्रारब्ध भी।


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