Friday, January 17, 2014

इन दिनों

इन दिनों असहमतियों और नापसंदगियों के बीच जीने का अभ्यास विकसित कर रहा हूँ यह पहले से अधिक परिपक्व बनने जैसा नही है लेकिन पहले मै शीघ्र आवेगपूर्ण हो जाता था और तुरंत निर्णय ले बैठता था जिसके चलते जल्दी ही कुछ लोगो को विदा कह देता था अब खुद की प्रज्ञा चेतना और सम्वेदना पर सवालिया निशान लगा कर खुद को ही परख रहा हूँ हर परिस्थिति में मै ही ठीक हूँ ऐसा कोई अनिवार्य या घोषित नियम भी नही है मै भी गलत,बेतुका या बेहूदा हो सकता हूँ। मुझे लगा कि खुद को ईमानदारी से देखने के लिए आसपास नाराज़ लोगो का रहना भी जरुरी है यदि सभी आपसे सहमत या सुखी है तो फिर आप खुद को नही देख पाते है सभी का स्नेह आपको एक ऐसी छवि में बांधे रखता है जिसमे सही-गलत का भेद थोडा अपरिहार्य हो जाता है। मेरे से नाराज़ या शिकायतजदा लोगो को सुनना उनको समझना या उनका मुझे खारिज़ करते हुए देखना भी एक स्प्रिचुअल प्लीज़र दे रहा है। मै कोई साधक या दिव्य चेतना नही हूँ लेकिन मानवीय स्वभाव का अध्येता होने के नाते मुझे यह जानना रुचिकर लगता है कि कोई व्यक्ति किन परिस्थितियों में बागी,असहज़ या नाराज़ हो सकता है उसमे मेरी क्या भूमिका है और मै किस प्रकार से इस नाराज़गी को ग्रहण करता हूँ तथा उसके बाद अपनी प्रतिक्रिया किस रुप मे सुरक्षित रख लेता हूँ।

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