Wednesday, December 25, 2013

कोरस

एक तरफ हर पांच-सात मिनट फेसबुकिया पिंग (कमेंट्स और चैटिंग की) की गुडक-गुडक की आवाजें वही दूसरी तरफ दूसरे कमरे से कलर्स/स्टारप्लस की सास-बहुओं के सीरियल के कोरस की आं...आं...आं की नैपथ्य ध्वनि जो पत्नि के नेत्रों को सजल करने वाली आवाजें है इधर मै कभी चुप्पी में जीता हूँ तो कभी कभी किसी बात पर मुस्कुरा भी पडता हूँ हमारे इन दो कमरों के ध्वनिलोक में समानांतर दो दुनिया लम्बे समय से बसी हुई है। पत्नि जब कभी रसोई में होती है तो स्त्री दारुण कथा के धारावाहिकों की आवाज कार्टून में तब्दील हो जाती है फर्क बस इतना होता है कि मेरे कमरे की कमोबेश वही आवाजें होती है और पास के कमरे सें ओगी,डोरेमोन,भीम आदि की आवाजें आने लगती है इस तरह से घर के अन्दर चारदीवारी और सामानों के बीच तीन अलग अलग दुनियाओं का अस्तित्व है उनका अपना-अपना कोरस है और यह सब इतना सहज है कि कभी एक दूसरे को प्रभावित भी नही करता है इसमे बच्चों के लिए मनोरंजन प्रधान है पत्नि के लिए अपने अस्तित्व को तलाशना प्रमुख है और मेरे लिए लोक पर खुद बलात आरोपित करने की सारी कवायद चलती है जहाँ कभी मै कभी पसर्नल स्टेट्स लिखता हूँ तो कभी 'कवि' बन अपनी रचित कविताओं के जरिए अपने आसपास के संवेदनशील लोगो को यह बताना और जताना चाहता हूँ कि मै अन्दर से कितना द्रवित महसूस करता हूँ। कुल मिलाकर शब्दो के भ्रम और शब्दों के ब्रहम होने के मध्य हमारी ध्वनियां सूक्ष्म रुप से बसी हुई है जिससे हमे अपने अपने अर्थो में ऊर्जा मिलती है।
सांसारिक वजह जब आपको बांधने मे असमर्थ होती है तब हम अपनी एक समानांतर दुनिया रचते है जिसमें हम खुद को लगभग नायक सिद्ध करते हुए अपने संघर्ष को और तरल बनाने की कवायद भी करते है ऐसा ही नही है कि हर बार बात संघर्ष से शुरु होकर संघर्ष पर ही समाप्त होती हो कई बार हम खुद को एक युक्तियुक्त सांत्वना देने के लिए भी यह सब प्रपंच करते है फिर ध्वनियों के सन्दर्भ सें चाहे मेरे फेसबुक की पिंग की आवाज हो या फिर पत्नि के सीरियलस के कोरस का दुखद प्रलाप दोनो एक दूसरे को एक समकोण काटते हुए साथ चलते नजर आते है। बात बेहद आम है और कोई महत्व या मूल्य की नही लेकिन दो कमरों में जीती-मरती दो जिन्दगीयाँ कैसा अपने आप को बाह्य दुनिया से जोड लेती है यह निसन्देह रोचक है।

No comments:

Post a Comment