Thursday, December 17, 2015

छायायुग

वहां हर स्त्री पर एक पुरुष की छाया थी और हर पुरुष पर एक स्त्री की छाया की तलाश में गुम था।
एक बात जो तय थी वहां शायद हमेशा धूप रहती थी दिन निकलनें और साँझ होने जैसे सुंदर कल्पनाएं वहां मिथ्या थी।
आकृतियों के मध्य जीवन था और जीवन के ठीक बीच में कुछ रिश्तें आड़े तिरछे फंसे हुए थे वहां बाहर की दुनिया में एक व्यवस्थित कोलाहल था मगर अंदर की दुनिया में एक ख़ास किस्म की नीरवता पसरी हुई थी।
अधिकार वहां सबसे अधिक करुणा का पात्र था क्योंकि ये दिन में इतनी दफा जगह बदलता था कि ये समझना मुश्किल था कि सुबह का निकला रात तक कहाँ पहुँचेगा।
वहां की दुनिया थोड़ी तिलिस्मी थी वो दावों की दुनिया था जिसमें दिन भर कोई न कोई किसी का खण्डन करके अपने जगह सुरक्षित करने की जुगत में था।
छायाओं के मध्य वास्तविक आकार थोड़े धूमिल हो गए थे इसलिए वहां पुरुष और स्त्री के लिंग पर प्रायः सन्देह किया जाता वो अनुमानों और सम्भावनाओं की उजड़ी हुई मगर हरी भरी दुनिया थी।
उस दुनिया को देखनें के लिए रोशनी नही सघन अंधेरा चाहिए था तभी दीवारों पर हाथ लगाते हुए अनुमान के भरोसे मंजिल की तरफ रोज़ कुछ लोग निकल पड़ते थे।
वो दुनिया था या एक छाया थी इसका भेद अज्ञात रहा मगर उस दुनिया का आंतरिक सच रहस्यमयी ढंग से बिखरा हुआ था जिसे देखनें के लिए कभी कभी ऊकडू बैठना पड़ता या फिर किसी से महज बस इतना पूछ लेना होता है कोई है क्या वहां?

'छायायुग'

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