Wednesday, December 16, 2015

सम्बोधि

तुम मेरे जीवन का एक मात्र असंपादित अंश थी
अंश इसलिए कहा क्योंकि तुम्हें सम्पूर्णता में पाने की मेरी पात्रता थोड़ी कमजोर थी।
तुमनें एकदिन महर्षि रमण का एक किस्सा सुनाया उनके एक जिज्ञासु शिष्य ने कहा गुरुदेव क्या आप मुझे शक्तिपात से सम्बोधि की अवस्था में पहूंचा सकते हो? महर्षि रमण बोलें हाँ ! मगर क्या तुम इस अवस्था में हो कि तुम शक्तिपात को ग्रहण कर सको?
इस किस्से के जरिए तुम मुझे मेरी अपात्रता नही बता रही थी बल्कि तुम कहना चाह रही थी कि देने वाला कई बार देने की इच्छा होने के बावजूद भी नही दे पाता है। तुमनें एक प्रसंग का सहारा लिया और प्रेम की दुनिया में मेरी उपस्थिति का भौतिक आंकलन कर लिया।
फिर मैंने विषय बदलते हुए कहा क्या तुम मुझे सम्पादित करना चाहती है तुमनें तुरन्त इनकार किया नही मैं इसके लिए पात्र नही हूँ।
दरअसल पात्रता और अपात्रता के मानकों की दुनिया के जरिए तुम प्रेम की इस सम्बोधि में मुझे देखना चाहती थी जहां मैं केवल रहूँ और अनुराग की दासता में कोई ऐसा हस्तक्षेप न करूं जिससे हमारी अपनी स्थापित दुनिया थोड़ी भी अस्त व्यस्त हो।
अचानक तुमनें एकदिन पूछा समय क्या हुआ है मैंने घड़ी देखनी चाहिए तो तुमनें मेरी कलाई को अपनी हथेली से बन्द कर दिया और कहा अनुमान से बताओं
मैंने कहा मेरे अनुमान अक्सर सही नही निकलतें है मैं अंदाजन चूक जाता हूँ फिर भी मैंने कहा एक बजा है शायद।
तुमनें उसके बाद घड़ी नही देखी और न मेरे अनुमान की सत्यता की जांच की तुम्हारी इस बेफिक्री ने सच कहूँ मुझे समय से बहुत दूर कर दिया।
इस घटना के बाद हमारा दोनों का अपना एक मौलिक समय तय हुआ जो अधिक प्रमाणिक लगा मुझे।
बोध जब गहराता गया तब ये तय करना मुश्किल हो गया कि तुम निकट हो या दूर जब मैंने इसके बारें में तुमसे सवाल किया तब तुमनें सिर्फ इतना कहा निकटता और दूरी मेरी दिलचस्पी का विषय नही है तब शायद तुम यह कहना चाह रही थी कि हमें नदी पुल के जरिए नही झूला डालकर पार करनी चाहिए।

'बोध-सम्बोधि'

No comments:

Post a Comment