Saturday, November 21, 2015

अंतिम आश्रय

तुम्हारे पास मेरा अंतिम अरण्य था।
मेरे भटकाव का एक अंतिम पड़ाव था जहां से मुझे मंजिल नजर आ रही थी मैंने दूर से मंजिल को देखा और केवल एक बार मुस्कुराया। तुमनें उस क्षण मुझे देखा और बातचीत का विषयांतर कर दिया मैंने इसे हस्तक्षेप की तरह नही लिया बल्कि मुझे अच्छा लगा तुमनें मेरे सम्मोहन को तोड़ दिया।
तुम्हारी यात्रा मुझसे अलग थी इसलिए हमारी थकन और अनुभव दोनों भिन्न थे मगर आत्ममोह की अवस्था में भी कोई एक दुसरे को कमतर नही समझता था। हमारी रूचि के केंद्र अब विमर्श नही थे शायद हमारी अनुभूतियां आपस में ठीक ठीक बात कर लेती थी। जैसे मैंने एकदिन कहा कि मेरा अप्रासंगिकताबोध कहीं अधिक गहरा है तुमनें मुझे करेक्ट तो नही किया मगर कहा तुम असावधानी में जीवन जीने के आदी हो गए हो। तुम्हारी उपस्थिति का एक अमूर्त मूल्य था मेरे लिए इसलिए सारे संयोगो में से एक संयोग ऐसा बन जाता था जब तुम्हारे आसपास मेरी ध्वनियाँ आश्रय पा जाती थी।
समय के आर पार लौटते हुए मैंने एक बार हाथ हिलाया तो तुम्हें लगा कि मैं विदा चाह रहा हूँ तुमनें मेरे चेहरे पर अरुचि नही पढ़ी थी इसलिए तुमनें कहा आगे देखो कही चोट न लग जाए उस समय मैं समझ पाया तुम आगे देखने की बात के जरिए मुझे सचेत करना चाह रही थी क्योंकि तुम्हारे अर्थो में सबसे गहरी चोट चैतन्यता से अस्त व्यस्त हो जाने की थी।
हमनें एक दुसरे को देखा और बस इतना कहा चलो चलतें है उस वक्त चलना एक क्रिया थी मुझे लगा ये हम दोनों के अस्तित्व का विशेषण है।

'अंतिम आश्रय'

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