मन से मन का अतिक्रमण करने को सोचने मात्र से पूरा अस्तित्व विद्रोही हो जाने की धमकी देने लगता है. मन चंचल है यह तो शास्वत है लेकिन मन आदेश पालना के मामले में भी प्राय: एकाधिकारी होने की चेस्टा करता है.मन कॊई इकाई नही है लेकिन मन के बिना कोई इकाई दहाई नही बन पाती है. मन की एक उड़ान है अपनी गति भी है लेकिन मन की लय लोक से अभिप्रेरित प्रतीत होती है दिशाबोध के मामले में भी मन के कुछ अपने पूर्वानुमान हैं जिनको वह अर्द्धचेतन में सुरक्षित रखता है और जब जब शाम गहराती है या धुंध के बादल छा जाते है तब मन उनसे पड़ताल करवाता है कि उसको किस दिशा में उड़ना है. एक अस्तित्व के अंदर कितने अस्तित्व और उन सभी अस्तित्व के भी कितने स्तर गूथे हुए है इसको सुलझाने में वर्षो बीत सकते हैं. मन बावरा है मन व्याकुल भी है मन निरुपाय भी है लेकिन ये मन ही तो है जो अचानक से हमे अंदर तक आनंद में तर कर देता है और अचानक से उदासी में लिपटी मुस्कान छोड़ जाता है. मन को समझाना व्यर्थ है हम मन को समझा नही सके है जब हम मन को समझा रहे होते है तब मन तो बंकिम हंसी से हमारी छटपटाहट पर मुस्कुरा होता है दरअसल हम मन के चक्कर में अपने इगो को समझा रहे होते है.मन इगो से परे है उसकी अपनी एक दुनिया है,इगो लोक का दास है तो मन अपने मन का मुरीद.यह दासता में जी ही नही सकता है न यह किसी को अपना दास बनाना चाहता है हाँ ! ये उन्मुक्त खुला गगन चाहता है जहां लोक के अभिसारी बंधन न हो जहाँ अपेक्षाओ का बोझिल संसार न हो...मन को समझना दरअसल खुद को समझने जैसा है यह जितना प्रकट है उससे कंही अधिक गुह्य भी.मन को स्तरों पर न बांधो मन का विश्लेषण भी मत करो बस अपने मन कि सूक्ष्म उपस्थिति को अनुभूत करो इसके बाद मन के प्रश्न खुद जवाब में रूपांतरित हो जायेंगे फिर शायद आपको मन को जीतने की जरूरत भी न पढ़े क्योंकि तब तक आपका मन के साथ जीने का अभ्यास विकसित हो चूका होगा फिर गीता के उपदेश सुनने में आनंद ले सकोगे क्योंकि फिर ये उपदेश आपको अपराधबोध में नही ले जा सकेंगे बल्कि आप खुद योगिराज कृष्ण के वाक् चातुर्य और अर्जुन के अवसाद पुनर्वास का सच्चा आनंद ले सकेंगे जिससे आप अभी तक वंचित है.
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