Sunday, October 4, 2015

अधार्मिक के नोट्स

मेरा मन मन्दिर के अंदर जाते है स्वार्थी हो जाता है फिर वो करबद्ध होकर तमाम अतृप्त कामनाएं ईश्वर के हवाले करता है और चमत्कार की आश्वस्ति लेकर धीमें धीमें उलटे पाँव मन्दिर के चौखट से बाहर निकलता। घण्टे घड़ियालों शंख की आवाज़ मन्दिर की अंतिम सीढ़ी तक साथ देती है और हंसते हुए कहती है ईश्वर ने तेरी बात सुन ली है आगे क्या होना है क्या नही होना है ये बात कोई नही जानता है शायद ईश्वर भी नही।
जब मैं चर्च में जाता हूँ तो मुझे पुराने चर्च सबसे ज्यादा आकर्षित करते है पहाड़ पर बने चर्च का वास्तु मुझे सबसे ज्यादा बांधता है। चर्च के अंदर जाकर मैं कुछ भी मांगता नही हूँ बल्कि डार्क ब्राउन रंग की लकड़ी की बेंच पर हाथ फेरता हूँ और चर्च की छत को देखता हूँ सामने रखी प्यानों के बटन दबाने की जरूर इच्छा होती है फिर इसके बाद मैं अपने तमाम पापों का कन्फेशन करता हूँ और जीसस से कहता हूँ कि वो मुझे माफ़ करें यहां मैं कुछ चमत्कारिक कामना नही रखता हूँ चर्च में केवल मैं अपने मन का बोझ हलका पाता हूँ कन्फेशन के दौरान ही मुझे अनुभूति होने लगती है कि ईश्वर ने मुझे माफ़ कर दिया है इस तरह से मन के अंदर कुछ और दुनियावी पाप का स्पेस बनाकर लौट आता हूँ। जीसस से मिलकर मेरी करुणा का स्तर निसन्देह बढ़ जाता है।
मेरे घर से कुछ दूर मस्जिद है रोज़ मैं उसकी अजान सुनता हूँ हालांकि वो अरबी भाषा में है इसलिए उसके मानें मुझे समझ में नही आते है मगर मुल्ला जी जिस तरन्नुम में अजान देते है वो मुझे हमेशा बढ़िया लगती है सब कुछ बेहद सधा हुआ लगता है। मैं मौलवी साहब से मिलनें कई बार मस्जिद में भी गया हूँ वहां उनकी तस्बीह सुरमा और इत्र मुझे अच्छा लगता है मैं उनसे पूछता हूँ अल्लाह दयालु है तो फिर हम इतने क्रूर क्यों हो गए है मौलवी साहब कुरआन की एक आयत पढ़कर  सुनाते है तब मैं जान पाता हूँ कि इस्लाम जो हमें बताया जा रहा है वो असली इस्लाम नही है। मैं नमाज़ पढ़ते हजरात को देखता हूँ उनका अनुशासन मुझे प्रभावित करता है मगर मैं अल्लाह से कुछ मांगता नही हूँ बस मौलवी साहब से कहता हूँ कि वो अमन के लिए दुआ किया करें। इल्म से ज्यादा अमन इस वक्त की जरूरत मुझे लगता है।
एक सिख परिवार में मेरे पिताजी की गहरी दोस्ती थी पिताजी के मित्र को मैं चाचा कहता हूँ कभी कभी उनसे मिलनें जाता हूँ उनसे मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगता है क्योंकि जितनी पंजाबी मुझे आती है उन्हें उतनी ही हिंदी आती है हम आपस में उधार की भाषा में बात करतें है। सहमति के लिए 'आहो' कहना मैंने उनसे ही सीखा है छोटे से भाषा ज्ञान के बावजूद हम खूब बातें करते है हमें भाषा कभी बाधा नही लगती है। उनके घर के पास ही गुरुद्वारा है एकाध बार मैं वहां भी गया हूँ वहां ज्ञानी जी सबद कीर्तन करते रहतें है हारमोनियम और तबले की संगत से गुरबाणी सुनने में अजीब सा दिव्य सुख मिलता है। मन क्यूँ बैरां करें...! ये सबद मुझे विशेष प्रिय है। मैं गुरुद्वारे में लंगर खाता हूँ वहां की दाल मुझे बहुत बढ़िया लगती है हाथ में मांग कर रोटी खाना मुझे अन्न का सम्मान करना सिखाता है। गुरुद्वारे में जाकर मेरी रूह को संगीत और संगत की खुराक मिलती है वहां मैं मन्नत जैसी चीज़ें भूल जाता हूँ वहां तन्मयता से बर्तन मांझती सिख महिलाओं के देख बस मैं मन ही मन इतना कहता हूँ रब राखां।

'अधार्मिक के नोट्स'

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