Wednesday, October 7, 2015

बज़्म

चराग मद्धम है लौ भभक रही है शायद बज़्म के हिस्से में अंधेरा सौंप कर इन्हें बुझ जाने की जल्दी है। हवा रोशनदानों मे झांक कर उलटे पांव बादलों के घर लौट रही है उनके पास महफिल की बेरुखी के किस्से है इस साल अफवाह की फसल से ही बारिश होगी हवा ने यह मानकर उस घर की चौखट को छोड दिया है।
सांझ के पास चंद उलहानें है इसलिए वो चुपचाप आकर उस कमरें में पसर गई है जिसकी खिडकियों में शिकायत के जालें लगें है।
कुछ खत कुछ खताओं को वक्त का डाकिया तामील करा कर दोपहर में ही चला गया था जैसे ही उसनें खत और खताओं का मनीआर्डर थमाया उसकी साईकिल की चैन उतर गई उसने ऊकडू बैठ घर की दहलीज़ को देखा और फिर बिना मुडकर पीछे देखे वो चला गया।
शाम से बज़्म मे तन्हाई और खामोशी है चराग कहकहों से उकता गए है मगर जलना उनका नसीब है इसलिए वो जल कर बुझ रहें है और बुझ कर जल रहें हैं। ख्यालों की चादर पर सिलवटें पड गई है अब उन्हें सीधा करने के लिए जितना झुकना जरुरी है उतना झुकने के लिए एक खास का हौसला चाहिए। सबसे गहरे दोस्त नें हौसला उधार देने से मना कर दिया तो ऐसे ही बेतरतीब ज़मीं पर पसर गया फिर उसने छत की तरफ देखा और मन ही मन कहा आखिर शाम हो ही गई अब रात हो जाए तो बेहतर हो।
रात बीत जाएगी कल नई सुबह आएगी मगर वक्त के कुछ लम्हों के अटके अहसासों की सुबह का आना थोडा मुश्किल लग रहा है वो रात के बाद सीधे रात में उतरती है उन्होनें बेरुखी की सीढी मन के दालान मे लगा ली है।
कुछ बीत जाएगा कुछ रीत जाएगा और कुछ रह जाएगा बेआसरा रात का यही स्याह पक्ष है जिसकी गवाही में कोई चराग कभी बोलने को तैयार नही होगा। दुआ करता हूं कोई हवा का झोंका इन्हें जल्द बुझा जाए ताकि कुछ खुशफहमियां और डेढ दिन की उधारी जिन्दगी जी सके।

‘बज़्म और खामोशी’

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