Friday, October 2, 2015

रसोई

रसोई के बारें में सोचता हूँ तो लगने लगता है घर के अंदर यह वो कोना है जहां रोज़ यज्ञ होता है मगर एकल आहूतियां केवल ऋषि पुत्रियां देती है। गर्मी और बरसात के दिनों में जब हम कूलर पंखे और एसी में भी असहज महसूस करते है तब स्त्रियां रसाई में भोजन की समिधा लगाती हैं। जिस जगह से सबका पेट पलता है वातानुकूलन की दृष्टी से वो जगह बिलकुल भी सुविधाजनक नही है। प्रायः हम तो इसी सवाल से खीझ जातें हैं कि आज क्या बनाया जाए मगर जो रोज़ नित्यकर्म से बनाने की प्रक्रिया से गुजरती है नीरसता का अंदाज़ा लगाना भूल जाते है।
एग्जॉस्ट फैन की सीमाओं के मध्य चरम् गर्मी में गैस की आंच में खड़े रहना छौंक के धुंए को लगभग रोज़ झेलना और इसके बावजूद बिना किसी शिकायत के नियमतः रोज़ यथासमय खाना तैयार करना कम चुनौतिपूर्ण काम नही है।हम तो दुसरे कमरें में छौंक के धुएं से छींक आने भर से परेशान हो जाते है मगर जिसकी दुनिया इसी धुंए में रंगी होती है उसकी तकलीफ का अंदाज़ा लगाना अक्सर भूल जाते है।
रसोई अपने आप में किसी को स्त्री को सिद्ध करने की प्रयोगशाला है जिसमें दायित्वों की सदियों पुरानी कंडीशनिंग से स्त्रियां अपने वजूद को सिद्ध करती रहती है ये उनके मन की उधेड़ बुन की सबसे सच्ची गवाह है। रसोई उस उदास गीत को सुन सुन कर बूढ़ी होती है जिसे स्त्री अपने सबसे तन्मय पलों में गाती है। व्यापक संदर्भो में देखा जाए तो रसोई का हर कोना एक भरा पूरा आख्यान है। एग्जॉस्ट फैन की सीमाबद्ध जिजीविषा स्त्री मन के द्वन्दों को धुएँ की भाँति घर की चारदीवारी से बाहर छोड़ आती है ताकि वो एक राहत भरी सांस ले सके। सिंक में अटे पड़े बर्तन रोजमर्रा के छोटे छोटे शिकवों के प्रतीक लगने लगते है जिन्हें इच्छा अनिच्छा के बावजूद रोज़ स्त्री मांझ कर साफ़ करती है ताकि बची रहे शुद्धता।
रसोई के अंदर स्त्री की दुनिया बड़े वैचित्र्य से भरी होती है वो वहां जीवन में घुले दुखों को सब्जी की तरह कांटती छांटती है दाल से कंकड़ की तरह बुनती है और फिर उम्मीद की थाली में अपने अधिकतम् प्रयास से रोज़ सुख परोस देती है। पसन्द नापसन्द के पैमानें पर उसकी खुद की पसन्द सबसे निम्नतम स्तर पर होती है वो ख्याल रखती है बच्चें वयस्क और प्रौढ़ों का। कितने।लोग यह सच जान पातें होंगे कि बेहद स्वादिष्ट खाने बनाने की प्रक्रिया में खुद स्त्री का स्वादबोध इतना पीछे चला जाता है जब आप उसके बनाएं खाने से तृप्त हो रहे होते है सच तो ये है उस वक्त उसकी भूख मर चुकी होती है वो खा लेती है बेमन से सब बचा कुचा।
स्त्री को अपने मन की तरह रोज़ साफ़ करनी होती है रसोई।वो नियत करती है दाल मसालें और बर्तनों का स्थान ताकि चरम् दबाव में भी वो अस्त व्यस्त न हो। रसोई में बचता अन्न और उसे निष्प्रयोज्य समझ जब फैंकना होता है तब किसी किस्म के अपराधबोध से एक रोज स्त्री गुजरती है उसका आप अंदाज़ा नही लगा सकते है अन्न को फैंकना उसे लगता है उसके अनुमान के कौशल का असफल हो जाना।
स्त्री के जिन झक सफेद हाथो की सुंदरता पर आप होते है मोहित उन पर चढी होती है एक अंश आटे की सफेदी और बार बार डिटर्जेंट से हाथ धोने की आदत का रंग। रसोई में बहे पसीनें का मूल्य इसलिए नही समझ आता सबको क्योंकि वो रसोई से खाने की टेबिल तक आते आते निष्ठा और प्रेम की आंच में सूख जाता है और स्त्री उसी की ठंडक में रोज़ परोसती है गर्मागरम भोजन।
एक स्त्री के जीवन में रसोई जितनी जीवन्त है पुरुष के जीवन में वो इतना ही तटस्थ स्थान रखती है पुरुष के पास अर्थ है जहां से रसोई के साधन निकलतें है और वह इसे अपना अधिकतम योगदान समझ मुक्त हो जाता है मगर स्त्री के मनोरथ है जहां से रसोई के नए अर्थ विकसित होते है जीवन आगे बढ़ता है।
रसोई की साधना निसन्देह अधिक व्यापक और गहरी है स्त्री मन के विस्तार की सबसे निर्जीव किस्म की साक्षी है रसोई मगर एक छोटे स्थान पर स्त्री को स्वयं की मुक्त सत्ता का बोध इतना गहरा होता है कि वहां अधिकार से सब अपने मन मुताबिक़ नियोजित करती है ऐसे में रसोई के भूगोल में बड़ी गहराई से सांस लेता है स्त्री के स्वतन्त्रताबोध का गहरा मनोविज्ञान।
रसोई के सहारे स्त्री की यात्रा को देखा जा सकता है और इस यात्रा के मूल्य को समझने के लिए कम से कम एक दिन बिताना पड़ता है रसोई में वो भी बिना किसी खीझ के जोकि तमाम पुरुषों के लिए एक बेहद मुश्किल काम है इसलिए पुरुषो की उपस्थिति को रसोई खुद करती है अस्वीकार और प्रायः बड़बड़ाते हुए पुरुष बाहर निकल आतें है यह कहते हुए हमारे बसका नही ये तामझाम।

'रसोई का मनोविज्ञान'

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