Friday, May 1, 2015

शब्दों का सफर

मेरे पास शब्दों की कुल जमापूंजी इतनी थी जिससे मैं तुम्हारी कुछ पल की मुस्कान खरीद सकता था। मगर मैं अक्सर कुछ शब्द इसलिए भी बचा लेता था ताकि कभी तुम्हें तुम्हारें बारें में वो बात बता सकूं जो तुम खुद भी नही जानती हो। मन के भंवर में घूमते ये शब्द अक्सर आपस में इतने उलझ जाते थे कि मै यह तय नही कर पाता था कि इन्हें एक वाक्य में कैसे प्रयोग करुं।
निंदा और प्रशंसा से इतर ये शब्द मैने मन की उन दशाओं को बतानें के लिए बचाकर रखे थे जिनको व्यक्त करनें के लिए अक्सर भाव भी पीठ फेर लेते है। एक एक अक्षर को मैनें इस बात के लिए दीक्षित किया कि मेरी किसी बात से कला का अपमान या दुरुपयोग नही होना चाहिए तुम्हारे बारें इंच दर इंच ठीक वही बातें मैं कह सकूं जैसा मै महसूसता हूं मेरी अधिकतम तैयारी बस इतनी ही थी। इन शब्दों की वाग्मिता में भरम के फेर नही बल्कि ब्रह्म सी सच्चाई बची रहे इसके लिए मैंने इन्हें अपने अपमान के वटवृक्ष की छाया और आत्मीयता की नदी किनारें पाला है।
सुनो! कल रात मुझे अपनी कुछ किताबों के बीच तुम्हारी टूटी हुई चूडी का एक टुकडा मिला। उसका रंग मै फिलहाल भूल रहा हूं मगर उसकी खुशबू मुझे अभी तक याद है। उसके आर पार देखनें की कोशिस की तो चश्मा उतारना पडा और नंगी आंखों से मै तुम्हारी कलाई के वो महीन रोम देख पाया जिनके चित्र चूडी के एक इस टूकडें ने खींच कर कैद कर लिए थे। दो सोने के कंगनों के बीच जीते हुए यह जान पाया था सीमाओं के बीच जीने का बोझ। एक तरफ यह खुद को सुरक्षित महसूस करता था तो दूसरी तरह यह रहा है रात दिन बेहद बैचेन भी। और अंत: इसकी यही बैचेनी इसे तोड गई है। जानता हूं जब तुमसे यह बात कहूंगा तो तुम कहोगी एक निर्जीव चीज़ से यह सब कैसे पता चला तुम्हें? मै जवाब देने के लिए शब्दों को आवाज़ दूंगा तो वो तुम्हारी सन्देह भरी दृष्टि देख बाहर आने से इनकार कर देंगे।फिर भी मै इतना जरुर कह सकता हूं जब तुम्हारे इस चूडी के टुकडे को मै नंगी आंख से देख रहा था तभी यह छू गया था मेरी एक गाल से इसकी अधूरेपन की ठंडक नें ये सब राज़ मेरी गाल से कहा था जिसे कान के रास्तें मेरे दिल ने सुन लिया था। यकीन करो न करो तुम्हारी मर्जी।
आज सुबह मै सोचता रहा तुम्हारे बारें में और सोचता क्या रहा मैने देखा तुम्हारे मन और देह के इतर भी कुछ तुमसे जुडी हुई चीज़े ऐसी है जो तुम्हारें बारें मे जानती बेहद अनकहा भी। मैने जमापूंजी वाले शब्दों से कहा जरा बात करके तो देखों मगर वो उपयुक्त अवसर न होने की दुहाई देकर हमेशा की तरह चले गए नेपथ्य में। एक दिन तुम्हारा एक खत मिला उस पर तुम्हारा पता लिखा था मगर नाम किसी और का था मैने स्याही को सूंघ कर देखा तो कुछ अनुमान न मिला मगर दो वाक्यों के बीच मुझे तुम्हारी जानी पहचानी खुशबू आई दिमाग पर थोडा जोर देकर सोचा तो यह खुशबू तुम्हारी कलाई पर बंधे शुभता के धागे की थी जो रोज़ भीग भीग कर अपनी खुशबू को रुपांतरित करता चला रहा था यह खत उसके गंधहीन होने से ठीक पहले का था इसलिए मुझे खत पर तारीख देने की जरुरत महसूस नही हुई। खत को बिना पढे मैने रख लिया मगर लिखावट पर जमी स्पर्शो की नमी को जरुर अपनी पलकों से छुआ है एक बार यह किसी को याद करके भावुक होने से बचने का एक टोटका रहा है मेरा।

फिलहाल बातें बहुत सी है मगर आदतन जमापूंजी के शब्द साथ नही दे रहें इसलिए शेष फिर कभी।

‘शब्दों का सफर'

No comments:

Post a Comment