Sunday, January 8, 2017

हाथ

तुम्हारा हाथ जब हाथ में था ऐसा लगता था साक्षात् ब्रह्म से आश्वस्ति उधार मिल गई है।
तुम्हें देखते हुए कम से कम मौत के बारें में नही सोचा जा सकता था। तुम्हारा हाथ थामें ऐसा लगता जैसे पहाड़ ने थोड़ी हिम्मत भेज दी वो भी बिन मांगे।
तुम्हारे स्पर्शों ने मेरी रूह के जाले साफ़ किए तो तुम्हारे साथ ने मेरे अस्त व्यस्त वजूद को किताबों की तरह ठीक किया था।
जब तुम जाती तो मन करता हिम्मत करके कुछ लम्हों के लिए और रोक लूँ मगर इतनी हिम्मत नही जुटा पाया इतना बुझदिल तुम मुझे हमेशा समझ सकती हो।
दरअसल,तुम्हारा साथ हमेशा चुराना पड़ता सो मेरी थकन चिंता और बैचेनी हमेशा चोर के जैसी ही रही मैंने कुछ नही कमाया मगर मेरे खोने का भय हमेशा बड़ा था।
हमारी रेखाएं एक दुसरे के मन के तापमान को भलीभांति जानती है उनकी हमसे अच्छी जान पहचान है। एकदिन तुम्हारे हाथ ने मेरे हाथ से कहा चल झूठे! तब से मेरे हाथ का आत्मविश्वास थोड़ा कमजोर पड़ गया है वो तुम्हारी हथेली तलाशता है मगर छिप छिप कर।
तुम्हारी खुशबू का एक क्लोन मेरे जेहन में बसा है मगर उससे मिलनें की इजाज़त मुझे भी कब है जब जब तुम्हारी बातें सोचता हूँ तुम्हारी खुशबू मुझे कहती है दिमाग की बजाए दिल की सुनो फिर तुमसे मुलाक़ात होगी।
जब जब तुम गई मैंने सोचा ये तय है पहले से मगर मेरा सोचना उतना ही सतही था जितना साहिल पे खड़े होकर तूफ़ान का अंदाजा लगाना इसलिए मेरे मन का एक हिस्सा हमेशा तुम्हारे साथ तुम्हारे दर तक गया जब तक तुमनें मन पर लौकिकता की सांकल न चढ़ा ली हो।
मेरी कुछ जान पहचान तुम्हारे कंगन बिस्तर तकिए और  शॉल से है कभी उनसे मेरी बातें करना तो वो मेरे बारें में कुछ अफवाहें तुम्हें चटखारे से सुनाएंगे।
हालांकि मुझे पता है आप ऐसा कभी नही करेंगी क्योंकि तुम ऐसा कोई काम कभी नही करती जिसका कोई हासिल न हो।
ये आप और तुम में मत उलझना दरअसल बात इतनी सी है कि तुम्हारी बहुत याद आ रही है इसलिए मैं औपचारिक शिष्टाचार और सम्बोधन भूल गया हूँ इसलिए
माफी चाहूंगा दोस्त।

'यादें दर ब दर'

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