Sunday, September 21, 2014

नाराजगी

उनके बीच की दूरिया छोटे बच्चों की कच्ची पेंसिल की चोरी की लड़ाईयों और नाराज़गी जैसी दिखती थी। उनके बीच कुछ भी न था न प्रेम न मैत्री दोनों की जिन्दगी दो विपरीत छोर पर चिपकी हुई थी दोनों छत की मुंडेर पर जमी काई जैसा खुद को खुरचते हुए मिले थे। उनकी कामनाओं का संसार देह के सोंदर्यशास्त्र से अलहदा था दोनों की त्वचाएं सम्वेदना को गलाती हुई परिपक्व हुई थी। उन दोनों की अपनी अपनी दुनिया में समानांतर जीवन विकसित हो रहें थे कभी मन कंक्रीट के जंगलों से निकल भाग पड़ता बेहताशा वो अक्सर पहाड़ नदी झरने जंगल की बातें करते जो टिका हुआ था उनके मन के समशीतोष्ण मौसम में।
उन दोनों की बातें प्राय: असंगत होती विषयांतर तो इतना अधिक हो जाता कि कोई एक अपनी मर्जी से किसी भी बात से आहत हो सकता था उसे अन्यथा ले सकता था। उन दोनों में बस इन्तजार का साम्य था न जाने क्यों वो दोनों एक दुसरे का इन्तजार करते दिख जाते थे बिना एक दुसरे को बताएं उनके पास इतने सवाल होते कि कोई भी एक दुसरे को संतुष्ट नही कर पाता था।
उस दिन वो दोनों इस बात को लेकर मौन बैठे रहे कि ताउम्र एक याद के सहारे कैसे जिया जा सकता है फिर उसने कहा सुनो ! याद को गेंद बना कुछ देर चाँद पर खेलते है ! इसके बाद दोनों कुछ दूर हाथ थामें चलें मगर इस बार हथेलियों ने गुदगुदी करना बंद कर दिया था शायद मन और दिमाग ने स्पर्शो को बैगाना होने का आदेश दिया था एक अजब सी नमी जरुर थी मगर उस नमी में हाथ फिसल रहें थे यह फिसलन उन दोनों के लिए अभ्यास थी जिससें उनके रास्तें आसानी से अलग हो सकें।
आज भी उन दोनों ने उस नमी को आँखों में जिन्दा रखा है दोनों एक दुसरे से न खफा है और खुश हाँ कभी-कभी दोनों बच्चों को डांटते दिख जाते है दोनों का एक अपना दायरा है मगर फिर उन दोनों को कभी लड़ते बिगड़ते नही देखा दोनों जीते है अपने अपने हिस्से का निर्वासन मन के निर्वात के बीच।

'वो दों: एक बात'
© डॉ. अजीत 

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