Thursday, September 18, 2014

कयास

थोड़े से मुश्किल वक्त में वो इतनी जटिल हो जाती कि उससे बात करना तो दूर उसे सोचने से पहले दस दफे सोचना पड़ता। वो जितना हंसती उतना मन ही मन डर लगता क्योंकि ये तय था इसके बदलें उसका मन जब रोएगा तो फिर नदी की तरह सम्बन्धों का तटबंध चंद मिनटों में ध्वस्त हो जाएगा।
ऐसा नही था कि उसे बुरे दौर का अभ्यास नही था हकीकत में वो जिस दौर में जी रही थी वो बाहर से एक स्थापित जीवन दिखता था मगर अंदरखाने वो कितना उथल पुथल भरा था यह ठीक ठीक वो ही जानती थी।
उसके पास हवा की चुगलियाँ होती पहाड़ो के उलाहने होते नदियों की उदासी होती झरनों की शिकायते होती मगर वो हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती उसका गुनगुनाना दरअसल खुद से बात करने का तरीका भर था उसकी आँखों की चमक और लबों पर फ़ैली हलकी मुस्कान उन चंद लम्हों की जमानत होती जिनके सहारे दिन भर में वो शिद्दत से जीने का जतन कर लेती थी।
उसकी हंसी और उदासी दोनों मन की बगिया में झूला झूलती रहती थी वो खुद को समेटने का हुनर जानती थी कभी कभी देखता उसकी फ़िक्र में इतनी मामूली चीज़े शामिल होती जिन्हें पर खुद ईश्वर भी कभी गौर नही करता होगा इसलिए मुझे कभी कभी वो भगवान से बढ़कर लगती क्योंकि उसे फ़िक्र के साथ जीना आता था वो कभी उस सूरज की तरह लगती जिसे बोझिल होने की इजाजत नही होती है जिसके होने भर से रोशनी का पता चलता है तो कभी वो कृष्ण पक्ष का चाँद सी दिखती जो बादलों से घिर जाता है अक्सर रात दस बजे के बाद।
वो धरती की तरह व्याप्त थी मन का धरातल उसकी गर्द से अटा रहता था सुबह औ'शाम। वो मामूली दिखने वाली दुनिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी जिसे रोज क़िस्त दर किस्त टुकड़ो में जीना पड़ता था वो भी बिना उसे बताए क्योंकि जिस दिन उसे यह सब पता चलता उस दिन वो फिर वो न रहती उसके बाद उसका निर्मल चित्त शायद पल भर के लिए अनमना हो सकता था दुनिया के तमाम पाप श्राप भोगता इस अनमने मन के संताप को झेल न पाता फिर कहने के लिए कुछ न बचता वैसे भी कहा सुना उसके लिए कभी महत्वपूर्ण नही रहा था वो अपनी शर्तो पर जीती थी एक उलझी-सुलझी जिन्दगी...।

'वो कौन: कुछ आस कुछ कयास'

© डॉ. अजीत

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