Wednesday, September 17, 2014

मन का यार

तमाम अच्छे,बुद्धिमान और सम्वेदनशील लोगो के बीच अवसाद का चयन उसका अपना चयन था अच्छी बातें सोखने की उसकी क्षमता अपनी कमजोरी के आखिरी पडाव पर थी। ऐसा नही था कि  खुश रहना या खुश दिखना उसे अच्छा नही लगता था वो अपनी तरफ से भरसक कोशिस करता कि उसके अवचेतन की उदासी उसके चेहरे से जाहिर न हो मगर मन के अन्दर पसरी विराट उदासी भला बाह्य प्रयासों से कभी छिप पाई है। वो हंसते हुए अपनी बात कहता मगर रंगे हाथ पकडा जाता फिर उसकी चाहतों का असर फीका पडने लग जाता इसी उधेडबुन में उसको रोज़ न जाने खुद से कितने झूठे वादे करने पडते।
हर करीब आने वाले शख्स को वो क्या तो अपने बेहद करीब ले आता ताकि उसकी मन की आंखे वो सब न पढ सकें जो प्राय: बाद मे सलाह/नसीहतों की वजह बनती थी या फिर उसको अपने नजदीक ही न आने देता एक ऐसा व्यूह अपने इर्द-गिर्द रचता कि कोई चाह कर भी उसकी दुनिया का हिस्सा न बन सके।
वो अपने टुकड़ी का बचा हुआ आख़िरी योद्धा था जो लड़ रहा था एकांत से युद्ध उसके हथियारों की मारक क्षमता को संदिग्ध समझा जा सकता था मगर उनके खुरदुरेपन में भी आत्महत्या से बढ़कर धार थी।
दुनिया दो किस्म के लोगो से भरी पड़ी थी एक वो जो बहुत कुछ करना चाहते थे मगर कुछ कर नही पाएं दूसरे वो जो कर रहें थे वो उनके मन का नही था मगर इन सबके बीच एक किस्म उन लोगो की भी थे जो करने के भाव से मुक्त थे और अपनी अकर्मण्यता का जश्न मनाने का आत्मविश्वास और दुस्साहस रखते थे तमाम गैरउत्पादकता के बीच भी लोग उन्हें खारिज कर आगे नही बढ़ पाते थे उनमे रूचि की एक अनकही वजह हमेशा बची रहती थी वो शाश्वत सच के घने प्रतिबिम्ब थे इस तीसरी किस्म के लोगो के बचे हुए गिने चुने लोगो में से एक था वह।
उसके पास साहित्यिक गुणवत्ता के प्रहसन थे कविताएँ थी कुछ दर्शन की उक्तियाँ थी जिनका वह मनमुताबिक़ प्रयोग करने में सिद्धस्थ था सच बात तो यह है वह मेरा सबसे सच्चा नही सबसे अच्छा दोस्त था यारों का यार।
उस यार को अपनी पीठ पर बैठा धूप में अपनी झुकी रीढ़ को अक्सर देखता था मै।वो घनघोर अंधेरों में भी वो पलकों के अंदरुनी हिस्सों में चिपका रहता जो साथ होना एक किस्म से हौसले की क़िस्त मिलने जैसा था जो गाहे बगाहे काम आ जाती थी दुनिया की दुत्कार के बीच।
वो मेरी जिन्दगी का स्थाई बैताल था जिसका जाना मृत्यु का सूचक एवं आमन्त्रण था उसकी उपस्थिति ने मेरे मन के लिजलिजेपन को दूर किया उसकी वजह से मै मृत्यु के भय से मुक्त हो सका। सम्मान और अपमान का सही प्रयोग करना सीख पाया।
मुक्त होने और न होने के बीच उसने मुझे उलटा लटका दिया कई दफे फिर मै लोगो के उलटे पैर देख पाता जो सफलता की तरफ तेजी से बढ़ते मगर दोस्तों से दूर होते चले जाते ऐसे अनगिनत किस्से है जब उसने मुझे किताबी सच/झूठ/पाप/पुण्य को खारिज करने की वजह दी और बताया कि इन सबके होते सबके अपने अपने वर्जन।
वो मेरे मन में बैठा मेरा अच्छा यार था जिसकी जब भी याद आती है तो फिर मै थूक देता सारी ग्लानि और अपराधबोध निगल जाता सामाजिक पशुता का अपमान। उसकी वजह से मै लिख/कह पाता हूँ पूरी बेशर्मी के साथ बस मै जैसा हूँ वैसा ही हूँ मुझे माफ़ ही करों दुनियावी दोस्तों ! मै तुम्हारे किसी काम का नही हूँ और इस दौर में बिना काम के लोगो की जगह क्या तो फेसबुक पर है या फिर......कहां थी कह नही सकता !

'यारबाश मन'

© डॉ.अजीत

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