Sunday, September 14, 2014

दोपहरी प्रवचन

तनाव अवसाद रिक्त तिक्त हृदय इन सब का चयन मेरा था नही चाहता था बेवजह खुश रहना उदासी से मिलती थी प्राण ऊर्जा दुनिया के तमाम ऊबे हुए भगौड़े लोग मेरी रूचि का विषय थे असफल लोगो में मुझे एक लय दिखती थी जो सफल लोगो में कभी नजर नही आई।
जीवन में प्रेम के इतर भी बहुत से नीरस बातें थे जिन्हें बिना नियोजन जीने में मेरा पुख्ता यकीन था आत्म आलोचना का सुख हमेशा निंदा से भिन्न और आस्वादी भी लगता था।
कहीं पहूंचने कुछ पाने कुछ करने में मेरी कोई दिलचस्पी नही थी दिन भर एक ही मनस्थिति में एक ही जगह बैठा रहता कभी बिन बताए घर से निकल पड़ता एकांत में कुछ ही पल अर्थपूर्ण निकाल पाता बाकि एकदम निपट निठल्ला जीवन जीने के आदत से विकसित हो गई। मै न दुखी था न विक्षिप्त।
आसपास लोगो में पसरी कुछ करने की जिजीविषा और उनकी लम्बी चौड़ी योजनाएं  मेरे लिए कभी अभिप्ररेणा विकसित न कर पाती हमेशा खुद को खुद ही खारिज करता हुआ मै जीता था एक बेतरतीब जिन्दगी।
सलाह नसीहत से बचता अपने ढब की इस जिन्दगी को जीने का निर्णय और चयन मेरा था इन सब के बीच कभी फूट पड़ती थी कोई कविता या कुछ कहानी की शक्ल में बतकही जिसे असाहित्यिक लोग बड़ी रूचि से पढ़कर मेरा मूल्यवान होना सिद्ध कर देते थे।
दरअसल, मूल्यवान होना बड़ी खतरनाक चीज़ एक बार अगर ऐसा प्रतीत करवा दें तो फिर दुनियादारी में फंसे लोगो की अपेक्षाओं पर टंगे रहो उम्र भी किसी से भले किसी बुरे बन जीते रहो एक अपेक्षाबोधी जिन्दगी।
बंधन एक शाश्वत झूठ है जिसके न होने पर होने से अधिक पीड़ा होती है दिल जुड़ते और टूटते है इसी कारीगरी में मुझसे कई खिलोने टूट गए जिनका मुझे आज भी मलाल है।
कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि जीवन के सापेक्ष चलना तटस्थता जैसा ही है जिसमें आप वहां होते है जहाँ होते नही है और जहां होते है वहां होने का कोई अर्थ नही होता है...खैर ! अब जो है सो है काहे इन उलझी उलझी बातों के चक्कर में दुनिया की चिढ मोल लेना दुनिया गोल है और उसे गोल गोल बातें पसंद नही है सीधा कहो मगर एक लोकप्रिय सच कहो बिन सम्पादन के लोग शायद ही आपको कभी स्वीकार कर पाएं। इति

'दोपहरी प्रवचन'
 © अजीत

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