Wednesday, September 24, 2014

अलविदा

उदासी के अड्डे गली के नुक्कड पर नही लगते बल्कि मन के उस निर्जन टापू पर साल में एक बार कुछ परछाईयां अपने हाथ मे बुझी मशाल लेकर आती है जिन्हें पहले चिराग समझा जाता था फिर उनकी गंध में सिद्धो की चिलम सी खुशबू आती और आंखो की पुतली पर तुम फैल जाती। यादों के खत बैरंग लौटने ही थे क्योंकि उन्हें शहर के भीडभाड वाले पोस्ट आफिस से पोस्ट किया गया था उन पर खताओं की मुहर लगी थी उन्हें बिना टिकिट पोस्ट करना एक किस्म का अपराधबोध से बचने का उपक्रम था । मेरे पास एक अदद अपनी उम्मीदों का बिछौना था जिसे क्या तो बिछाया जा सकता था या फिर ओढा जा सकता था मैने कभी लेटने का नाटक किया तो कभी सोने का। हर बार मेरी निगाह आसमान मे न जाने कितने क्षितिजों के मध्य फंसी तुम्हें तलाशती रहती मगर तुम बादल चांद या तारा नही थी तुम हवा थी और हवा केवल एक बार महसूस की जा सकती है उसे कौन आंखो में बांध पाया है भला। तुम जब अपनी दुनिया बेहद मशगूल थी तब मै दिल को जला कर तुम्हारी रोशनी के लिए काजल बना रहा था जो तुम्हें मिल सकता है मेरे सिरहाने एक वफा की छोटी डिब्बी में। तुम्हारे ख्यालों तक से निकलना एक किस्म का निर्वासन था जिसकी तैयारी का आभास बहुत दिनों से तुम्हारी दुनियादारी की बातों से होना शुरु हो गया था।
मेरी तुम्हारी यात्रा का एक यह महत्वपूर्ण पडाव है यहां से रास्ते जुदा होते है और मंजिल अतीत मे दिखाई देनी शुरु होती है मगर मुझे दौडना होगा उल्टे पांव भविष्य में। तुम्हारे पास मन की क्षणिक रिक्तता को भरने के अनेक विकल्प है इसलिए तुम अपनी ऐच्छिक सवारी से मंजिल की तरफ रवाना होगी फिलहाल मैने अपने मन की जेब मे देखा तो पाया कि एक सिक्का तुम्हारी हंसी का अभी भी पडा है अकेला। एक बार दिल ने कहा तुम्हे लौटा दूं मगर तमाम हसीन यादों और तल्खियों के बीच मैने रख लिया है तुम्हारा यह सिक्का। यह अब खनकेगा नही मगर मन के किसी होने मे इसके वजन से मेरा मन हमेशा भारी रहेगा बस यही मेरा निजी स्वार्थ है।
मेरी गति अधिक थी इसलिए थक गया अभी सोच रहा हूं कि थोडा सुस्ताने के लिए फिर से एक कामकाज़ी दोपहर मे शहर चला जाऊं यहां का एकांत हर बात में हर जगह पर तुम्हारी तस्वीर बना देता है फिर मेरी बतकही शुरु हो जाती है इस तरह से मै उलझ जाता हूं बेवजह।
अच्छा ! कहा-सुना माफ करना....इस चौराहे से छोडकर अगले दोराहे से मुझे अपना रास्ता बदलना है फिलहाल सबक का बैग मैने अपने कांधे पर लाद लिया है मै पहले धीरे धीरे चलूंगा और फिर थोडा तेज़ यह तुम्हें शायद यह रेंगने जैसा लगें और लगने मे कोई बुराई भी नही है कभी कभी बिना रीढ के शख्स को तंग रास्तें से गुजरने के लिए ऐसे ही प्रपंच करने पडते है मै चाहता हूं तुम थोडी देर के लिए मेरे तरफ पीठ कर लो कम से कम तुम्हारी आंखो में देखता हुआ मै एक कदम भी वापिस न हट सकूंगा बस यही एक आखिरी निवेदन है मेरा अगर मान सको तो...।

‘फिदा-विदा-अलविदा

© डॉ.अजीत

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