Friday, September 12, 2014

फर्ज कर लेते है

चलो फर्ज़ कर लेते है कि तुम्हारी मुझमे महज़ बौद्धिक दिलचस्पी है निजता के प्रश्न भी छोड देते है क्योंकि तुम अपनी आंतरिक ऊर्जा को सदैव प्रज्वलित रखने के लिए बाहर की दुनिया में सम्बन्धों की लकडियां बीनने निकली हो इसलिए तुम्हारे लिए उनकी उपयोगिता रिश्तों के जलनें मे है शायद यही एक वजह है कि सतत अपने मतलब की बातें तुम मेरे लिखे/कहे मे तलाश लेती हो। मन बुद्धि के फेर में मै एक आसान आब्जेक्ट हूं जहाँ तुम्हे दिल और दिमाग दोनो की खुराक मिल जाती है।

कल रात मैने एक ख्वाब देखा जिसमें तुम कोई सवाल नही कर रही हो बस मुझे देखे जा रही हो अपलक एक बार तो मै सोच मे पड गया कि ये तुम ही हो या कोई और है मगर फिर तुमनें बाल सुलभ जिज्ञासा से कहा क्या सच मे चांद भटके हुए प्रेमियों को पनाह देता है तब मै समझ पाया कि ये तुम ही हो...तो इन दिनों तुम चांद की पडताल कर रही हो मैने हंसते हुए कहा फिर तुमने चांद की तरफ इशारा किया और चुप हो गई।

इस चुप्पी में एक बारीक पिसी हुई फिक्र शामिल थी तुम्हें पहली बार यह लगा था कि शायद मेरे पास कहने के लिए कुछ अलांकारिक शेष नही बचा है मेरी बातों की शास्त्रीय एवं दार्शनिक गुणवत्ता कमजोर पडती दिखी थी तुम्हें...! हां यह सच है कि अब मै रीत चुका हूं और बीत रहा हूं हरफ-दर-हरफ।

तुम्हें मुझसे निराश देख मुझे थोडी सी निराशा जरुर होती है मगर फिर मै हंसता भी हूं मन ही मन क्योंकि मेरा बीतना या रीतना तो पहले दिन से ही तय था हां तुम अपनी अंजुरी में कितना भर पायी हो मुझे यह बता पाना थोडा मुश्किल काम है मै आचमन के जल सा बमुश्किल ही तुम्हारे कंठ तक पहूंचा हूँ कभी।

चलो फर्ज़ कर लेते है कि जल्दी तुम विकर्षण की प्रक्रिया का हिस्सा बनोगी तुम्हें मेरी बातों में एक थके हुए चुके हुए शख्स का आलाप दिखेगा और एक ही कक्षा में घूमते हुए निष्प्रयोज्य उपग्रह की तुम्हें मै बेहद बोझिल और नीरस लगने लगूंगा।

यह फर्ज़ कर लेना गणित के सवाल को हल करने जैसा विज्ञान सम्मत नही है फर्ज करने के लिए खुद को टटोलना/खरोंचना पडता है मन बागी है वो मानता नही है मगर फिर अंत में हार कर दिमाग की शरण मे आकर यात्रा के बहलावें में कुछ नए पडाव की आस में खुद को तैयार करना पडता है...तुम्हारी फर्ज़ करने की तैयारी पर मेरा यह आखिरी प्रवचन है क्योंकि तमाम ज्ञान बघारनें के बावजूद मै आज तक यह नही समझ पाया कि कैसे तुम्हें विस्मृत कर लिखी जा सकेंगी कविताएं कहानी या गज़ल... कैसे नदी की किनारे टहलते समय तुम्हारी बातों को कंकर बना फैंक सकूंगा मै जलधारा के बिचो बीच....कैसे उन दरख्तों से आंख मिला सकूंगा जो सच्चे गवाह हमारे सत्संग के..... ठीक यही सब सोचता हुआ मै गाने लगता हूं कबीर को सोचने लगता हूँ संसार की नश्वरता के बारें फिर मोह माया के जंगल मे दौडता हूँ हताश, बैचेन ठीक उस वक्त जब तुम सोच रही होती हो फ्लैट,कार,प्रमोशन,ईएमआई,अप्रेजल के बारे में।

चलो फर्ज़ कर लेते है कि शरीर नश्वर है मन चंचल है और संसार मिथ्या तुम्हें सोचते-सोचते कई बार सिद्धों सा संवाद होने लगता है तुम्हारे लिए मै किसी मतलब का शायद ही कभी रहा हूं मगर हां न चाहते हुए भी मैने तुमसे सीख लिया तटस्थ रहना वो भी बिना ध्यान-ज्ञान के।

तुम सांसारिक हो और मैं कभी अघोर सांसारिक तो कभी अघोर विरक्त फिर हम दोनों एकांत सिद्ध होने की प्रबल सम्भावनाएं रखते है चलो फर्ज़ कर लेते है..!!!


‘फर्ज़-कर्ज़ की पहली ईएमआई’

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