Thursday, June 8, 2017

इनदिनों मैं

यात्राएं जीवन से अनुपस्थित होती गई मुझे इसका भान तक न हुआ। काल का अपना नियोजन था जिसमें मैं समझ नही पाया। अंग्रेजी फ़िल्म फाइनल डेस्टिनेशन की तरह भविष्य ने मेरा बड़ी सावधानी से शिकार किया मैं उसके समीकरण को तोड़ नही पाया।

अब स्थिति यह है जो सबसे जरूरी काम है वह मेरी सबसे न्यूनतम प्राथमिकता पर है। रिश्तों का मैनेजमेंट भी अस्त व्यस्त है। कभी कड़वा बोलता हूँ फिर माफी मांगता हूं। एक सुदूरवर्ती यात्रा की कल्पना में भटकता हूँ मगर कल्पना में ही अपराधबोध मुझे यथार्थ की शक्ल में आकर घेर लेता है और बाद में मुझे खुद के औसत मनुष्य होने की ग्लानि होती है और मैं काल्पनिक रूप से चिंतित होने की कोशिश करता हूँ।

मैंने एक बैग तैयार करके रखा हुआ है मैं सोचता हूँ फलां जगह जाऊंगा फिर वहां से आगे की यात्रा यह करूँगा मगर जैसे ही पहली जगह जाता हूँ मेरी आगे कहीं जाने की इच्छा समाप्त हो जाती है और फिर से वही जाने की सोचने लगता हूँ जहां से चला था।

मुझे दरअसल कहीं नही जाना है मेरे पास यात्राओं की एक धुंधली कल्पना बची है यही कल्पना मुझे एक जगह रुकने नही देती है मगर यही मुझे अब कहीं जाने भी नही देती है। मेरा उत्साह केवल मार्ग का उत्साह पहले पड़ाव पर पहुंचते ही मुझे लगता है मैं दिशा भरम का शिकार हो गया हूँ।

साल भर इस खाली वक्त का इंतजार करता हूँ और सोचता रहता हूँ कि इस बार फलां दोस्त से जरूर मिलूंगा मगर हकीकत में किसी से नही मिल पाता हूँ क्योंकि फिलहाल मैं खुद में गुमशुदा हूँ।
मेरे पास एकांत की कामना है मगर एकांत का प्रशिक्षण नही है मेरे पास निर्लिप्तता का दर्शन है मगर मेरे पास मेरी लिप्तता के ठीक ठीक अनुमान नही है।

मैं आवारा हवा की तरह भटक रहा हूँ पहाड़ से उतरते वक्त मेरे कान ठंडे थे अब मेरे तलवों में केवल फर्श की ठंडा बची है इस धरती पर उतनी ही जगह ठंडी लगती है जितना मेरे दोनों तलवों का आयतन है।

मेरे माथे पर कुछ पते है जहां कायदे से मुझे जरूर पहुंचना चाहिए मगर मेरी पीठ जो अब एक स्क्रेप बुक बन गई है उस पर उन पतों के सही या गलत होने की जानकारी है मेरे पीछे कोई दोस्त नही है जो उन्हें पढ़कर बता सके कि मैं सही जा रहा हूँ गलत।

दरअसल मेरे पीछे कोई नही है मेरे आगे जरूर कुछ लोग है वो कौन है उनका चेहरा मैं नही देख पा रहा हूँ जैसे ही मैं उनकी पीठ पर हाथ लगाता हूँ वे पलटकर नही देखतें बस आगे से बोलते है उनकी आवाज़ जब तक मुझतक आती है मै उनकी तरफ पीठ कर लेता हूँ।

सारी आवाज़ें मेरी और उनकी पीठ के मध्य दबकर विचित्र सा घर्षण पैदा कर रही है जिसके कारण इन दिनों मेरी रीढ़ ही हड्डी बहुत झुक गई है मैं अपनी देह पर तीर कमान की तरह टँग कर खुद को दूर कहीं पटकना चाहता हूँ मैं निशाने पर पहुंचकर किसी का शिकार नही करना चाहता है इसलिए मैं हथियार नही हूँ।

'इनदिनों मैं'

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